गरमी हा आ गे हवय,परत हवय अब घाम।
छइँहा खोजे नइ मिलय,जरत हवय जी चाम।।
जरत हवय जी चाम हा,छाँव घलो नइ पाय।
निसदिन काटे पेंड़ ला,अब काबर पछताय।।
अब काबर पछताय तै,झेल घाम ला यार।
पेंड़ लगाते तैं कहूँ,नइ परतिस जी मार।।
नइ परतिस जी मार हा,मौसम होतिस कूल।
हरियाली दिखतिस बने,सुग्घर झरतिस फूल।।
सुग्घर झरतिस फूल तब,सब दिन होतिस ख़ास।
हरियाली मा घाम के,नइ होतिस अहसास।।
नइ होतिस अहसास जी,रहितिस सुग्घर छाँव।
लइका पिचका संग मा,घूमें जाते गाँव।।
घूमे जाते गाँव तै ,रहितिस संगी चार।
गरमी के चिंता बिना,मिलतिस खुशी अपार।।
अजय अमृतांशु
भाटापारा
The post सिंहावलोकनी दोहा : गरमी appeared first on गुरतुर गोठ .