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सर्वगामी सवैया : पुराना भये रीत

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(01)

सोंचे बिचारे बिना संगवारी धरे टंगिया दूसरो ला धराये।
काटे हरा पेंड़ होले बढ़ाये पुराना भये रीत आजो निभाये।
टोरे उही पेंड़ के जीव साँसा ल जे पेंड़ हा तोर संसा चलाये।
माते परे मंद पी के तहाँ कोन का हे कहाँ हे कहाँ सोरियाये।

(02)

रेंगौ चुनौ रीत रद्दा बने जेन रद्दा सबो के बनौका बनावै।
सोचौ बिचारौ तभे पाँव धारौ करे आज के काल के रीत आवै।
चाहौ त अच्छा हवै एक रद्दा जँचै ता करौ नीव आजे धरावै।
कूड़ा उठा रोज होले म डारौ ग होले बढ़ै औ गली खर्हरावै।

सुखदेव सिंह अहिलेश्वर “अँजोर”
गोरखपुर,कवर्धा



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