Quantcast
Channel: gurtur goth
Viewing all 1686 articles
Browse latest View live

मंजूर के गांव मंजूरपहरी : सियान मन के सीख

$
0
0





सियान मन के सीख ला माने मा ही भलाई हे। संगवारी हो तइहा के सियान मन कहय-बेटा! मंजूरपहरी हर मंजूर के गांव आय रे। फेर हमन नई मानन। वि.खं.-बिल्हा, जिला-बिलासपुर के गांव सीपत ले लगभग 18 कि.मी. के दूरी में एक ठन गांव हवै मंजूरपहरी । ए गांव के नाम मंजूरपहरी कइसे परिस ए बारे मा जानकारी मिलस ए गांव के सरपंच श्री मती रमौतिन बाई पति श्री राम नेताम से। ए गांव मा जइसे प्रवेश होथे हमन ला एक सुघ्घर पहाड़ी मिलथे जउन ला दुरिहा ले देखे मा अइसे लगथे जइसे कोनो मंजूर बइठे हावय अउ ए पहाड़ी हर वास्तव में मंजूर मन के गढ़ आय। ए गांव के सियान मन बताथें कि तइहा जमाना में हमन बइठे रहन अउ कई ठन मंजूर मन ए पहाड़ी ले उतर के हमर तिर मा किंजरय। आज घलाव कभू-कभू मंजूर मन उतर के नीचे आथे फेर अब उॅखर संख्या धीरे-धीरे कम होवत जात हे। सुन के थोरकन दुख होइस के आज काबर इंखर संख्या कम होवत जात हे? संगवारी हो ए गांव हर पूर्ण रूप से प्रकृति के कोरा में बसे हे।

ए गांव के सुन्दरता देखते बनथे अउ ए गांव ला अतका अच्छा सरपंच मिले हावय जउन हर ए गांव के साफ-सफाई करे बर स्वयं बहरी धर के भिड़ जाथे। ए हर कानो सुने बात नोहय बल्कि आॅखी ले देखे बात हरै। महूॅ ला एक घंव उॅखर संग मा गांव के हर गली खोर मा घूमें के मौका मिलिस तब हमू मन अपन स्कूल के जम्मों लइका मन ला लेके प्राथमिक, पूर्व माध्यमिक अउ हाई स्कूल के जम्मों शिक्षक साथी मन के संग मा जम्मों गांव के घर-घर जाके स्वच्छता संबंधी जानकारी स्वच्छ पानी अउ शौचालय के जानकारी देके आय रहेन। पूरा गांव ला घूम के आत्मा आनंदित हो गै रहिस हे। ए गांव के कोनो गली में गंदगी तो नजर में ही नई आत रहिस हे। ए गांव ला जउन बसाय हवै तउन परिवार के महतारी ले जरूर भेंट होइस। ए गांव के एक ठन अउ बात में मोर अंतस हर द्रवित हो उठिस- जब हमन 26 जनवरी के दिन बिहनिया प्रभात फेरी बर निकलेन। लइकन मन आगू-आग महात्मा गांधी, भारत माता के अउ माता सरस्वती के फोटो ल लेके अउ तिरंगा झंडा लेके फेरी लगाथे तब हर गली में दाई बहिनी मन गंगाजल अउ दूध से वो लइकन मन के पांव पखारथे।

ए गांव के हर लइका अउ सियान के मन में भारत भुइंया बर अतका प्रेम अउ समर्पन देख के आत्मा भावविभेार हो गे। ए गांव के सरपंच श्री राम नेताम जी ला गांव के एक झन दिव्यांग बेटी बर शौचालय बनवाय खातिर एनडी टीवी इंडिया में बुला के महान कलाकार अमिताभ बच्चन के द्वारा सम्मानित घलाव किये जा चुके हे। अइसे नई हे कि ए काम ला उमन कोनो ईनाम पाए खातिर करे रहिन हे बल्कि आज भी दोनो पति-पत्नि के मन में हमनला पूरा गांव अउ हमर देस के खातिर प्रेम अउ समर्पन देखे बर मिलिस। केवल सरपंच ही नई ए गांव के जम्मों निवासी मन के मन हर बहुॅत ही पावन नजर आइस। इंहा के लइकन मन के मन हर घलाव वइसने निश्छल अउ सेवाभाव अउ अतिथि सत्कार के भाव ले भरे नजर आइस।

ए गांव में जायके बाद मनखे ला शहर के धुर्रा अउ गंदगी छू भी नई पावय। शुद्ध प्राकृतिक हवा अउ पानी वाला पहाड़ी के नीचे बसे हरियर गांव हरै मंजूरपहरी। पहरी के मतलब होथे पहाड़ी अउ पहाड़ी में मंजूर पाए के सेती ए गांव के नाम मंजूरपहरी रखे गे हावय। संगवारी हो दुनिया भर में सब ले सुन्दर पक्षी मंजूर ला माने जाथे। मंजूर ला पक्षी मन के राजा घलाव कहे जाथे। मंजूर के सिर उपर राजा के मुकुुट सहीं सुघ्घर कलगी घलाव होथे। नर मंजूर के कई ठन अति सुघ्घर लंबा-लंबा पाखी होथे। मंजूर के पाखी में सुघ्घर आॅखी असन इंद्रधनुशी रंग के कई ठन निशान बने रइथे जउन हर सबके मन ला मोह लेथे। अइसे लगथे के कोनो बहुॅत बडे़ कलाकार हर एखर पाखी के सजावट करे हावय तभे तो भगवान कृश्ण हर घलाव अपन सिर में मंजूर के पाखी ला धारण करे हावय।

वइसे तो मंजूर हर ज्यादातर अपन पाखी ला नई फइलावय फेर बसंत ऋतु अउ बरसात के दिन में जब मंजूर हर खुश होके अपन जम्मों पाखी ला फइला के नाचथे तब ओखर सुंदरता देखते बनथे। एखर सुंदरता ला देखके हमर भारत सरकार हर 26 जनवरी सन् 1963 के एला राश्ट्रीय पक्षी घोशित करे हावय। मंजूर हर केवल भारत देस के ही नइ बल्कि श्री लंका के घलाव राश्ट्रीय पक्षी आय। एखर वैज्ञानिक नाम पावो क्रिस्टेटस हरै। एखर मूल स्थान दक्षिणी अउ दक्षिण पूर्वी एशिया हरै। मंजूर हर दक्षिण एशिया के देसी तितर परिवार के बड़का पक्षी आय। दुनिया के अउ दूसर भाग मेें मंजूर हर अर्धजंगली के रूप में परिचित हे। मंजूर हर खुला जंगल या खेत में पाए जाथे जिहाॅ उॅखर चारा बर अनाज मिल जाथे फेर मंजूर हर सांप, नपल्ली, मुसुवा अउ गिलहरी ला घलाव खाथे। जंगल में अपन तेज आवाज के कारन इंखर पता आसानी से लगाए जा सकथे। मंजूर हर शेर सहीं अपन शिकारी ला अपन उपस्थिति के पता घलाव देथे।

इमन जादातर अपन पैर मा चलथे अउ उडे़ से बचे के कोशिस करथे। मंजूर के पाखी से कई ठन सजावट के समान घलाव बनाए जाथे अउ कई ठन कुर्सी के डिजाइन घलाव मंजूर के पाखी कस बनाए जाथे। एखर पाखी के अड़बड़ महत्तम हावै जेखर बखान नई करै जा सकै। हमर छत्तीसगढ़ में पाए जाने वाला राजा पक्षी के संरक्षण के प्रयास हमर छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा होना चाही। जइसे हमर छत्तीसगढ़ में मगर के संरक्षण बर पार्क बनाए गे हावय वइसने मंजूरपहरी में मंजूर के संरक्षण करके मंजूर पार्क बनाए जा सकथे। फेर कोनो भी हालत में ए गांव के प्राकृतिक रूप खतम नई होना चाही। आज 5 जून के विश्व पर्यावरण दिवस मनाए जाथे। आज विश्व पर्यावरण दिवस में मोर यही शुभकामना हावै कि मंजूरपहरी में मंजूर के संरक्षण जरूर होना चाही। जम्मों ग्रामवासी के घलाव यही प्रार्थना हावै। सियान बिना धियान नई होवय। तभे तो उॅखर सीख ला गठिया के धरे मा ही भलाई हावै। सियान मन के सीख ला माने मा ही भलाई हावै।

रश्मि रामेश्वर गुप्ता







The post मंजूर के गांव मंजूरपहरी : सियान मन के सीख appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).


कबीर जयंती : जाति जुलाहा नाम कबीरा बनि बनि फिरै उदासी

$
0
0





परमसंत कबीर दास जी अईसन कलम के बीर हरे जे ह अपन समय के समाज म चलत धरम अउ जाति के भेदभाव, कुरीति, ऊंचनीच,पाखंड, छूवाछूत अउ आडंबर के बिरोध म अपन अवाज ल बुलंद करिस अउ समाज म समता लाय खातिर अपन पूरा जीवन ल लगा दीस । ओ समय म लोग-बाग मन एक तरफ तो मुस्लिम राजा मन के अत्याचार म त्रस्त राहय त दूसर तरफ हिंदू पंडित मन के कर्मकांड, पाखंड अउ छुवाछुत ले। वईसे तो कबीर दास जी ह पढ़े-लिखे बर नइ जानत रहिस हे, फेर वो ह जउन भी बोलय ओला ओकर सिस्य मन तूरते लिख के रख लय, उही ह आज हमर बर ओकर धरोहर हे।
कबीर दास जी के जनम के बारे म कई ठन बात पढ़े-सुने बर मिलथे, कोनो कहिथे- वो ह विधवा बम्हनीन के लईका रहिस हे जउन ह रामानंद जी के आसिरबाद ले होय रहिस हे जे ह विधवा ल सधवा नारी के धोखा म दे डरे रहिस हे, जेला वो विधवा बम्हनिन ह लोक लाज के डर म कांसी तीर के गांव लहरतारा के तरिया म छोड़ दे रहिस हे, जेला एकझन जुलाहा परवार ह पालीस हे। कोनो कहिथे वो ह मुसलमान लईका रहिस हे।अउ कबीरपंथी मन तो लहरतारा के तरिया के कमल फूल म अवतरे लईका हरे कहिथे। वईसने ओकर जनमकाल म घलो मतभेद हे, कोनो संवत् १४५५ कहिथे, त कोनो संवत् १४५१-५२ के बीच कहिथे । कबीर दास जी के बिहाव ह बैरागी कन्या ‘लोई’ संग होय रहिस हे, जेकर ले एक बेटा ‘कमाल’ अउ एक बेटी ‘कमाली’ होय रहिस हे । कबीरपंथी मन कहिथे के कबीर दास जी के बिहाव नइ होय रहिस हे, कमाल ओकर सिस्य अउ कमाली अउ लोई ओकर सिस्या रहिन हे ।
कबीर दास जी ह अपन आप ल जुलाहा मानय, एक जघा कहे घलो हे –
जाति जुलाहा नाम कबीरा बनि बनि फिरै उदासी ।
कबीर दास जी ह रामानंद जी ल अपन गुरू मानय, राम नाम के दिक्छा पाय के बाद कबीर दास जी ह हमेसा राम नाम जाप म डुबे राहय,
“पीवत राम रस लगी खुमारी”।
कबीर दास जी ह अपन समय म धरम म चलत पाखंड के बिरोध करके समाज ल बड़ झकझोरिस, जइसे:
पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़।
कांकर पाथर जोर के, मस्जिद लियो बनाय
ता चढ़ि मुल्ला बाग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।
मो को कहां ढूंढो बंदे, मैं तो तेरे पास में
न मैं बकरी न मैं भेंड़ी, न छूरी गंडास में
ना मैं देवल ना मैं मस्जिद, ना काबे-कैलाश में
न तो कौनों क्रियाकर्म में, नहिं जोग बैराग में ……
अईसने अपन बिरोधी मन ल कहिस के

मेरा तेरा मनवा कैसे एक होई रे
मैं कहता हौं आंखन देखि, तू कागद की लेखी रे
भगवान ल पाय खातिर का करना चाही, येकर बर अपन अनुभव ल साधु-समाज बर साझा करिस, जइसे
१, पिछे लागा जाइ था, लोक बेद के सांथ ।
आगे थे सतगुरू मिला, दीपक दिया हांथ ।।
२, मन रे जागत रहिये भाई ।।
गाफिल होई बसत मति खोवै, चोर मुसै घर जाई ।।
३, हम तो एक एक कर जाना।।
दोई कहै तिनही को दो-जख, जिन नाहिन पहिचाना ।। …
कबीर दास जी के उलटबांसी ह घलो बड़ परसिद्ध होईस, जईसे
एक अचंभा मैंनें देखा नदिया लागी आग।
अंबर बरसै धरती भीजै, यहु जाने सब कोई।
धरती बरसै अंबर भीजै, बूझे बिरला कोई।।
गावनहारा कदे न गावै, अनबोल्या नित गावै।
नटवर पेखि पेखना पेखै, अनहद बेन बजावै।। …..
धरम के नाव म लड़ईया मन बर कबीर दास जी कहिस
एकै पवन एक ही पानी, एक जोति संसारा।
एक ही खाक धड़े सब भांडे, एक ही सिरजनहारा।।…
संसार के असारता बर घलो कबीर दास जी कहिस के
रहना नहि देस बिराना हे।
यह संसार कागद की पुड़िया, बूंद परे घुल जाना है।
यह संसार कांट की बाड़ी, उलझ उलझ मरि जाना है।
यह संसार झार और झांखर, आग लगे बरि जाना है। …
कबीर दास जी ह अपन जिनगी के पूरा समय ल कांसी म बितईस अउ अाखरी समय ल मगहर म बितईस, काबर के ओ समय ये कहे जाय के कांसी म जउन भी मरथे वो ह मुक्ति पाथे, अउ मगहर म जउन मरथे वो ह वो घोर नरक भोगथे, ये भरम ल टोरे खातिर कबीर दास जी ह मगहर म मरना पसंद करिस।
कबीर दास जी ल हिंदु-मुसलमान दुनों मन अपन जाति के मानय, त कहे जाथे के जब कबीर दास जी ह अपन सरीर ल छोड़िस त ओकर सरीर के जघा म बहुत अकन फूल मिलीस, जेला हिंदु मुसलमान दुनो मन बांट लिन अउ अपन अपन रीत के मुताबिक माटी दीन।
कबीर दास जी के महिमा के बखान नइ करे जा सकय, समाज म समता लाय खातिर वो ह अपन पूरा जिनगी ल लगा दिस, संगेसंग भगवान ल कईसे पाय जा सकत हे, ओकर रद्दा बतईस। आवव ओकर जनमदिन म हमन कसम खईन के समाज म समता भाव ल रखबोन अउ
बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय।।
इही भाव ल संग रख के हमन अपन अवईया जिनगी ल बितईन।

ललित वर्मा “अंतर्जश्न”
छुरा







The post कबीर जयंती : जाति जुलाहा नाम कबीरा बनि बनि फिरै उदासी appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

भोरमदेव –छत्तीसगढ़ के खजुराहो

$
0
0

हमर देश में छत्तीसगढ़ के अलग पहिचान हे। इंहा के संस्कृति, रिती रिवाज, भाखा बोली, मंदिर देवाला, तीरथ धाम, नदियां नरवा, जंगल पहाड़ सबके अलगे पहिचान हे।
हमर छत्तीसगढ़ में कोनों चीज के कमी नइहे। फेर एकर सही उपयोग करे के जरुरत हे। इंहा के परयटन स्थल मन ल विकसित करे के जरुरत हे।
बहुत अकन परयटन स्थल के विकास अभी भी नइ होहे। जब तक सरकार ह एकर ऊपर धियान नइ दिही तब तक एकर विकास नइ हो सके।
कबीरधाम जिला में एक जगा हे भोरमदेव एला छत्तीसगढ़ के खजुराहो भी कहे जाथे। काबर कि जइसे खजुराहो के मंदिर में चित्रकला उकेरे गेहे ओइसने चित्रकला इंहा के मंदिर में भी देखे बर मिलथे।
भोरमदेव ह कवर्धा से 17 कि. मी. दूर घना जंगल के बीच में स्थापित हे।इंहा जाय बर पक्की सड़क बन गेहे अऊ मोटर गाड़ी के बेवस्था घलो हे। आजकाल जंगल भी कटा गेहे त जंगली जानवर के उतना डर नइहे ।
पहिली के सियान मन बताथे कि भोरमदेव के तीर में जाय बर आदमी मन डरराय। काबर कि उंहा घनघोर जंगल रिहिसे अऊ जंगली जानवर शेर भालू के डेरा रिहिसे। अब मनखे के आना जाना बाढ़गे अऊ जंगल ह कटागे त जानवर मन के भी अता पता नइ चले।
प्राचीन मंदिर — भोरमदेव मंदिर ह बहुत प्राचीन मंदिर हरे। मंदिर के अंदर में शिवलिंग स्थापित हे। इंहा के मूरतीकला अऊ सुंदरता ह देसभर में परसिद्ध हे।
एहा जैन, वैष्णव, शैव सबो मत के आदमी के तीरथधाम हरे। इंहा सब परकार के मूरती लगे हुए हे।
ये मंदिर ल नागवंशी राजा देवराय ह 11 वीं सताब्दी में बनवाय रिहिसे।

भोरमदेव नाम कइसे परीस — भोरमदेव नाम के पिछे कहे जाथे कि गोंड राजा मन के देवता शिवजी हरे, जेला बूढ़ादेव, बड़ेदेव अऊ भोरमदेव भी कहे जाथे । एकरे सेती एकर नाम भोरमदेव परीस ।

कला शैली — मंदिर के मुंहू पूर्व दिसा के डाहर हे। ए मंदिर ह नागर सैली के सुंदर उदाहरन हरे। मंदिर में तीन तरफ से परवेस करे जा सकथे। एला पांच फूट ऊंचा चबूतरा में बनाय गेहे। अइसने मंदिर बहुत कम देखे बर मिलथे।
मंडप के लंबाई ह 60 फूट अऊ चौड़ाई ह 40 फूट हे। मंडप के बीच में चार खंभा अऊ किनारे में 12 खंभा बनाय गेहे। जेहा मंदिर के छत ल सम्हाल के रखे हे। सब खंभा में बहुत ही सुंदर चित्र बनाय गेहे।
मंडप में लछमी बिसनु अऊ गरुड़ के मूरती रखे गेहे। भगवान के धियान में बइठे एक राजपुरुस के मूरती भी रखे हुए हे।

गर्भगृह — मंदिर के गर्भगृह में बहुत अकन मूरती रखे गेहे अऊ एकर बीच में शिवलिंग स्थापित करे गेहे।
पंचमुखी नाग अऊ गनेस जी के मूरती भी रखाय हे।

बाहरी दीवार — मंदिर के चारो डाहर बाहरी दीवार में शिव, चामुंडा, गनेस, लछमी, बिसनु, वामन अवतार आदि के मूरती लगे हुए हे।

मड़वा महल — भोरमदेव मंदिर से एक किलोमीटर के धुरिहा में एक ठन अऊ शिव मंदिर हे जेला मड़वा महल या दूल्हा देव मंदिर के नाम से जाने जाथे।
ए मंदिर के निरमान ल 1349 ई. में फनी नागवंशी शासक राजा रामचंद्र देव करवाय रिहिसे।
कहे जाथे ए मंदिर के निरमान ल अपन बिहाव के उपलक्छ में करवाय रिहिसे। माने ओकर बिहाव ह इही जगा में होय रिहिसे।
मड़वा के मतलब होथे मंडप। जेला बिहाव के समय में बनाय जाथे। स्थानीय बोली में एला मड़वा कहे जाथे। एकरे पाय एला मड़वा महल के नाम से जाने जाथे।
मड़वा महल के बाहरी दीवार में 54 ठन कामसूत्र के मूरती उकेरे गेहे। एकर माध्यम से समाज में स्थापित गृहस्थ जीवन के अंतरंगता ल दरसाय गेहे।

छेरकी महल — भोरमदेव मंदिर के दक्षिन पश्चिम दिशा में एक किलोमीटर के धुरिहा में एक अऊ मंदिर हे जेला छेरकी महल के नाम से जाने जाथे। ए मंदिर के निरमान भी फनी नागवंशी राजा के शासन काल में होहे।
अइसे बताय जाथे कि ए मंदिर के निरमान ल बकरी चरवाहा मन के लिये बनाय गे रिहिसे। ताकि बकरी चरात चरात इंहा बइठ के सुरता सके।
छत्तीसगढ़ी में बकरी ल छेरी कहे जाथे। एकरे पाय ए महल के नाम छेरकी महल परे हे।

भोरमदेव महोत्सव
— भोरमदेव के विकास करे बर सरकार ह हर संभव परयास करत हे। इंहा के सुंदरता ल बढ़ाय खातिर अऊ परयटक मन ल आकरसित करे बर चैत मास में भोरमदेव महोत्सव के भी आयोजन करे जाथे। जेमे छत्तीसगढ़ अऊ बाहिर के कलाकार मन ह आके अपन कला के परदरसन करथे।

आवासीय सुविधा — इंहा परयटक मन के लिए रुके के भी बेवस्था करे गेहे। लोक निरमान विभाग ह विसराम घर भी बनाहे ।जिला मुख्यालय कवर्धा में भी विसराम घर, होटल अऊ लाज के बेवस्था हे।

पहुंचे के रास्ता — भोरमदेव रायपुर से 135 किलोमीटर के दूरी में हे। दुरुग भिलाई से भी लगभग ओतकीच धुरिहा परही।
इंहा जाय बर पक्की सड़क अऊ यात्री बस के सुविधा हे।

महेन्द्र देवांगन “माटी”
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला – कबीरधाम (छ. ग)
पिन- 491559
मो.- 8602407353
Email -mahendradewanganmati@gmail.com

The post भोरमदेव – छत्तीसगढ़ के खजुराहो appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

हमर भाग मानी ये तोर जईसन हितवा हे

$
0
0

आज के समे म कोनो ककरो नई होवय तईसे लागथे,मनखे के गोठ बात बिना सुवारथ के दूसर मनखे नई सुनय I अऊ बात बने सही रईहीं तभो वोकर बात ल कोनों नई गुनय, भाई मन बाटें भाई परोसी होगे हे, एक दूसर बर बईरी का कहिबे एक दूसर ल फूटे आँखी नई सुहावय Iसमे बदल गेहे अऊ मनखे मन बदल गेहे फेर ईतवारी बड़ा के मंझिला लईका मालचु ह नई बदलीच, भागमभाग अऊ बयसायीकरन के पल्ला दौड़ म लोगन मन अंधिरियागे हे फेर ईतवारी के संसकार ह मालचु ल अईसे जकड़े हाबय मरत ले नई छुटय तईसे लागथे I जात के केंवट ईतवारी ह एक समे म हमरे घर कमईया लगय, सात झिन लईका ल बनी भूति करके पालिस पोसिस सबो लईका अपन अपन रोजी रोटी कमाय बर धर लिच, बर बिहाव होगे नाती नतुरा आगे, तभो ले हमर घर के देहरी ल मरत ले नई छोड़ीस I ओकर मया अऊ बिसवास ल देखौ त अईसे लागय इही ह हमर घर परवार के सहिंच म हितवा ये,ईतवारी के गुजरे के बाद ओकर मंझिला लईका मालचु ह हमरे घर बनी भूति करय अऊ अपन परवार ल चलावय एको झिन लोग लईका नई रहिस हे, वोकर बाई सोहदरा ह तको काम म हाथ बटावयI जेन दिन काम नई रहय तेनो दिन हमर घर सोरियावत आवय अपन ठेठ भाखा म मोर महतारी ल बोलतीच गौटनीन कोनो काम होही त बतावव, ईहा के काम ल पहिली करके दूसर जगा जातेव, मोर महतारी ह एक बार वोला जरूर गरियातिस,आगेच जिवलेवा गतर के, जा जेन काम अपन आँखी में दिखत हे उही ल सिरहोI रोजे रोज मालचु के बेगारी काम करई हमर घर वोला बने लागय, वो काहय तको इहाँ के काम करे बिना मोर खाना नई पचय गौटनीन कईके,मोला देखके अइसने लागय कि आज के समे मा अईसन मनखे तको होथे का ? का सुख, का दुख,छट्टी बरही,बर बिहाव, जेने मेर देखव अगुवा असन मालचु ल खड़े पावव,बिना सुवारथ के आज कोनो ककरो नई सुनय, भाई भाई के नई बनय, बेटा अऊ बाप के नई जमय वोकर मन बर मालचु ह आज के समे में एक तमाचा आय,मालचु मया के नाव ये,मालचु एक बिसवास ये,मालचु ल भले ओकर बाई ह, गाव के मनखे ह परबुधिया काहय फेर ओकर सेवा भाव के गांठ ह अतेक ठोस लगहा हे आज भी कोनो तोड़ नई सकीच I कोन माटी के बने हे परबुधिया ह,आज घर परवार म हरर कटर होवत हे एक दूसर के टांग खिचत हे, दूसर के फटे खीसा देख हँसत हे, चारी चुगली म बूड़े हे,वोकर ले बढिया मोर परबूधिया भैय्या मालचु के काम अऊ ओकर बात ह हम सबो झीन बर प्रेरणा लगथेI वो कहिथे काकर बर अतेक संसों करथस माटी के काया माटी म जाही, लिंगरी लाई म बूड़ के जांगर ल अपन खपाव झन,मित मिलही मितान मिलही, कतको झीन सियान मिलही,फेर सरग चढ़े बर निसैनी नईये,जिनगी ल नरक बनाव झन I त परबूधिया फेर काहत हौ, बईरी के तै हितवा बन, मीत मितान बर मितवा बन, कोड़ात हाबस अपनेच बर गड्ढा,अईसन झन तेंहा परबूधिया बनI वाह ग मालचु भैय्या तोर गोठ अऊ काम ह घर परवार अऊ गाव बर हितवा असन लागथे,तै भले परबूधिया होबे फेर हमर मन के सही मायने म हितवा अस तोर जईसे हितवा रईही त कतको ले बड़े से बड़े पहार असन बाधा ल पार कर सकबो हमर भाग मानी ये कि तोर जईसे हितवा के साथ मिले हे I

विजेंद्र वर्मा अनजान
नगरगाँव (जिला-रायपुर)

The post हमर भाग मानी ये तोर जईसन हितवा हे appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

नरसिंह दास वैष्‍णव के शिवायन के एक झलक

$
0
0

आइगे बरात गांव-तीर भोला बाबा जी के
देखे जाबो चल गीयॉं संगी ल जगाव रे
डारो टोपि, मारो धोति, पॉंव पयजामा कसि
गरगल बांधा अंग कुरता लगाव रे

हेरा पनही, दौड़ंत बनही कहे नरसिंहदास
एक बार छूंहा करि सबे कहूँ धाव रे

पहुँच गये सुक्खा भये देखि केंह नहिं बाबा
नहिं बब्बा कहे प्राण ले अगाव रे

कोऊ भूत चढ़े गदहा चढ़े कूकूर म चढ़े
कोऊ-कोऊ कोलिहा म चढि़ आवत
कोऊ बिघवा म चढि़ कोऊ बघवा म चढि़
कोऊ घुघुवा म चढि़ हाँकत-उड़ावत
सर्र-सर्र सांप करे गर्र-गर्र बाघ रे

हॉंव-हॉंव कुत्ता करे कोलिहा हुहावत
भूत करे बम्म-बम्म कहे नरसिंहदास
संभू के बरात देखि जियरा डेरावत,
अस्‍पष्‍ट ….

नरसिंह दास वैष्‍णव

The post नरसिंह दास वैष्‍णव के शिवायन के एक झलक appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

माटी मुड मिंजनी

$
0
0

हमर गाव जुनवानी
के माटी मुडमिंजनी
चिटिक सुन लव संगी
डहर चलती एकर कहनी
आधातेच प्रसिद्ध पथरा- माटी हवे
शोर अडताफ म भारी उडथे
अचरुज हे पथरा मन के कथा
गांव म जे मुह ते सुनले गजब गाथा
अभी तो सुनव माटी के महिमा
पांच किसिम के हवे करिश्मा
कन्हार -दोमट हवे मटासी
लाल मुरम अउ पिवरी छुही
ऊपजे धान कत्कोन ओन्हारी
जाके देखव मंदिर अस खरही
चुंगडी-बोरा भरके गौतरिहा मन
अपन-अपन घर ले जाथे
माटीच लेगे बर जेठ बैसाख म
घरोघर सगा मन आथे
दही म रातभर भिंजो के
बिहने बदन अउ मुड म लगा
गरमी उतर जाही संगी
एक बार तो अजमा
आठो अंग संग चुन्दी चमकही
साबुन शेम्पू ह येकर संग का सकही
लीम तेल डार त जुआ लिख नसाही
धाव फोरा फुंसी सदा दिन बर नंदाही
हर्रा डार सरो के लिपथे
सुध्धर अंगना परछी भिथिया
पिडुरी, दुधही छुही संग
सजथे सुध्धर घर -कुरिया
मुड मिंजनी माटी के सेती
हमरे भर्री परे हे परती
दादी संतवन्तीन कहे चाहे बनाहु धनहा
तभो ले राखे रहु एला धरखनहा
सिरतोन हवन हमन भागमानी
सुध्धर नानकन गाव पथरा जुनवानी
तेकर पाचन चंदन अस
हवे माटी मुड मिंजनी
दार भात चुरगे अउ
पुरगे एकर कहनी

डा अनिल भतपहरी
जुनवानी (तेलासी – भंडारपुरी )

The post माटी मुड मिंजनी appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

मोर गांव कहां गंवागे

$
0
0

मोर गांव कहां गंवागे संगी, कोनो खोज के लावो।
भाखा बोली सबो बदलगे, मया कहां में पावों।
काहनी किस्सा सबो नंदागे, पीपर पेड़ कटागे ।
नइ सकलाये कोनों चंउरा में, कोयली घलो उड़ागे।
सुन्ना परगे लीम चंउरा ह, रात दिन खेलत जुंवा ।
दारु मउहा पीके संगी, करत हे हुंवा हुंवा ।
मोर अंतस के दुख पीरा ल, कोन ल मय बतावों
मोर गांव कहां …………………..
जवांरा भोजली महापरसाद के, रिसता ह नंदागे ।
सुवारथ के संगवारी बनगे, मन में कपट समागे ।
राम राम बोले बर छोड़ दीस, हाय हलो ह आगे ।
टाटा बाय बाय हाथ हलावत, लइका स्कूल भागे
मोर मया के भाखा बोली, कोन ल मय सुनावों ।
मोर गांव कहां…………………………
छानी परवा सबो नंदावत, सब घर छत ह बनगे।
बड़े बड़े अब महल अटारी, गांव में मोर तनगे।
नइहे मतलब एक दूसर से, शहरीपन ह आगे ।
नइ चिनहे अब गांव के आदमी, दूसर सहीं लागे ।
लोक लाज अऊ संसक्रिती ल, कइसे में बचावों
मोर गांव कहां……………………
धोती कुरता कोनों नइ पहिने, पहिने सूट सफारी
छल कपट बेइमानी बाढ़गे, मारत हे लबारी ।
पच पच थूंकत गुटका खाके, बाढ़त हे बिमारी ।
छोटे बड़े कोनों मनखे के, करत नइहे चिन्हारी ।
का होही भगवान जाने अब, कोन ल मय गोहरावों
मोर गांव कहां………………………….
जगा जगा लगे हाबे, चाट अंडा के ठेला ।
दारु भटठी में लगे हाबे, दरुहा मन के मेला ।
पीके सबझन माते हाबे, का गुरु अऊ चेला ।
लड़ई झगरा होवत हाबे, करत हे बरपेला ।
बिगड़त हाबे गांव के लइका, कइसे में समझावों
मोर गांव कहां गंवागे
संगी, कोनों खोज के लावो।।

महेन्द्र देवांगन “माटी”
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला — कबीरधाम (छ ग )
पिन – 491559
मो नं — 8602407353
Email – mahendradewanganmati@gmail.com

The post मोर गांव कहां गंवागे appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

अ –छत्‍तीसगढ़ी हिन्‍दी शब्‍दकोश

$
0
0

अँइठी (वि.)  गोल मुड़ी हुई, ऐंठ कर बनाई हुई, एक आभूषण।
अइलहा (वि.)  कुम्हलाया हुआ।
अइलाना (क्रि.)  कुम्हलाना। (सं.) उबाली गई तिवरा मटर, अरहर आदि की कच्ची फली।
अँकरी (सं.)  घास की जाति का एक अनाज जिसमेँ छोटे-छोटे गोल दाने होते हैं।
अँकबार (सं.)  1. आलिंगन 2. दोनों भुजाओं के अन्दर भर जानेवाली फसल की मात्रा।
अँकवारना (क्रि  आलिंगन करना, अंक में भरना, परस्पर लिपट कर भेंट करना, गले मिलना।
अँकुआ (सं.)  ऑंकने, दागने के लिए प्रयुक्त छोटा हँसिया। दे. ‘अँकुआना’
अँकुआना (क्रि.)  मोच या सूजन को जलाने की स्थिति तक हँसिया आदि से सेकना।
अँकवाना (क्रि.)  दे. ‘अँकुआना’
अँकोइ (सं.)  हम्माल का अंकुश।
अँखियाना (क्रि.)  आँख से इशारा करना, आँख मारना, आँख मटकाना।
अँगठा (सं.)  1. अँगूठा 2. अँगूठे की छाप।
अँगठी (सं.)  अँगुली।
अँगना (सं.)  आँगन। (सं.) दे. ‘अँकवार’।
अँगरक्खा (सं.)  अँगरखा। दे. ‘सलूखा’।
अँगरना (क्रि.)  1. गलना 2. ठिठुरना।
अँगरा (सं.)  अंगार, जलते कोयले का छोटा-सा टुकड़ा, धधकते उपले का टुकड़ा।
अँगरी (सं.)  दे. ‘अँगठी’।
अँगरेजी मिर्चा (सं.)  छोटी किन्‍तु तीखी मिर्च की एक प्रजाति।
अँगाकर (सं.)  कंडे की आग में पकाई गई पिसे चावल और बासी भात से बनाई गई मोटी रोटी।
अँगेठा (सं.)  जलती हुई मोटी और भारी लकड़ी, अँगीठी।
अँगेठी (सं.)  जलती हुई पतली लकडी।
अँगेरना (क्र.  1. अंगीकार करना 2. प्रस्तुत होना।
अँगोछना (क्रि.)  अंगों को गीले कपडे या तौलिए से पोंछना।
अँगोछी (सं.)  1. छोटी धोती जिससे घुटनों तक का भाग ढकता है २. अँगोछा।
अँगौछी (सं.)  (दे. अँगोछी
अँचरा (सं.)  आँचल, साडी का एक छोर।
अँचोना (क्रि.)  1. भोजन करके हाथ-मुँह धोना।
अँजुरी (सं.)  दोनों हाथों को संपुटित्त करके बनाई गई अंजलि।
अँजोर (सं.)  उजाला, प्रकाश।
अंजोरी (वि.)  चाँदनी भरी शुक्ल पक्ष की रात।
अँजोरी पाख (सं.)  शुक्ल पक्ष।
अँराना (क्रि.)  सूखना।
अँटियाना (क्रि.)  1. अवयवों आदि का अकड़ना 2. अँगड़ाई लेना।
अँठियाना (क्र.  (दे. ‘अटियाना’
अँड़वा (सं.)  अंडा ।
अँड़वारी (सं.)  अंडेवाली मछली। अँडि़याना (क्रि. ) 1. अकड़ना 2. ऐंठना 3. अँगड़ई लेना।
अँदोहल (सं.)  1. शोर 2. कलरव।
अँधउर (स.  ऑंधी।
अँधरा (वि.)  अन्धा।
अँधरोटी (सं)  आँखों में दोष के कारण अन्धकार-सा प्रतीत होने की स्थिति, आँखों में अन्धकारमयता की स्थिति, रतौंधी।
अँधवा (सं.)  अन्धा सर्प, अन्धा व्यक्ति (वि.) अन्धा, नेत्रहीन।
अँधाना (क्रि.)  औंधाना।
अँधियार (सं.)  अन्धकार।
अँधियारी (सं.)  1. घर का वह अँधेरा कमरा जहाँ अचार आदि रखा जाता है, भंडारगृह 2. छोटी अलमारी  (वि.) अँधेरी।
अँधियारी पाख (सं.)  कृष्ण पक्ष।
अँयरी (सं.)  एक चिडिया जिसकी गरदन और पूँछ काफी लम्बी होती है।
अँवरा (सं.)  आँवला।
अंकाल (सं.)  अकाल, अभाव का काल।
अंजन (सं.)  1. आँखों को आँजने का साधन जैसे-काजल 2. एक प्रकार का धान।
अँजरी (सं.)  अंजलि। (दे. ‘अँजुरी’
अंझा (सं.)  अभाव, अनुपस्थिति।
अंटा (वि.)  टेढ़ा, टेढ़ी।
अंडस (सं.)  अड़चन, बाधा।
अंडा (सं.)  1. एरंड 2. अंडा।
अंडा भाजी (सं.)  फूलगोभी के पत्ते।
अंडी (सं.)  1. छोटा एरंड 2. रेशम से निम्न कोटि का एक प्रकार का वस्त्र जिसे पवित्र माना जाता है।
अंतस (सं.)  अंतर्मन, हृदय, मन।
अंताज (सं.)  अनुमान।
अंते (क्रि.) वि.  अन्यत्र।
अंते-तते (क्रि.) वि.  यहाँ-वहाँ।
अंथऊ (सें.  शाम का भोजन।
अंदोहल (सं.)  दे. ‘अँदोहल’।
अंधड्ड (सं.)  आँधी।
अंधन (सं.)  अदहन, दाल भात पकाने के लिए अन्न को पात्र में डालने से पूर्व पानी के उबलने की स्थिति।
अंधेर (सें.  अन्याय, मनमाना, ज्यादत्ती, अति।
अंस (सं.)  1, अंश 2. परिवार।
अइतबार (सं.)  इतवार का दिन, रविवार।
अइताचार (सं.)  अत्याचार।
अइलाना (क्रि.)  कुम्हलाना, मुरझाना।
अइसन (वि.)  ऐसा, अई (अव्य.) अरे, अरी।
अउ (समु.  1. और 2. और भी, अधिक। (वि.)  अन्य।
अउठ (वि.)  साढे तीन। (सं.) 1. काई, जल में पैदा होनेवाली वनस्पति विशेष, पानी में डुबकी मारनेवाली एक छोटी चिडिया।
अकइसी (सं.)  एकादशी। (वि.) इक्कीसवाँ।
अकतरिया (सं.)  ग्रामीण औरतों की विशेष ढंग की चप्पल जिसे बरसात में पहना जा सकता है।
अकतहा (वि.)  अधिक, अतिरिक्त।
अकतियार (सं.)  शक्ति, अधिकार।
अकती (सं.)  अक्षय तृतीया का पर्व जो वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाता है। इस दिन गाँव के नौकरों का कार्यकाल समाप्त होता है।
अकन (अव्य.)  परिमाण द्योतक ‘सा’। दे. ‘कन’।
अकबकाना (क्रि.)  स्तब्ध रह जाना, घबरा जाना, हक्का-बक्का रह जाना।
अकबकासी (सं.)  घबराहट।
अकबार (स.  अखबार, समाचार-पत्र।
अकरस (सं.)  अंतिम वर्षा, रबी फ्रसल के समय की वर्षा, बेमौसम का पानी, पानी का थम-थम कर बरसना। (वि.) केवल एक ही, अकेला, मात्र, इकलौता।
अकलउती (वि.) स्त्री.  इकलौती।
अकलमुंडा (वि.)  एकांतप्रिय, आत्मकेंद्रित व्यक्ति, दूसरों की चिंता न करने वाला। भकसी (सं.) फल तोइने के लिए बनाई गईं जाली लगी मोटी (दे. , जिससे फल टूट कर नीचे न गिर कर जाली में ही गिरे।
अकाऱरथ (वि.)  व्यर्थ।
अकास (सं.)  आकाश ।
अकेल्ला (वि.)  अकेला, एकाकी।
अखरना (क्रि.)  बुरा लगना, खलना, अप्रिय अनुभव करना, पश्चाताप होना।
अगड्डाही (सं.)  बड्डी आग।
अगम (वि.)  अगम्य, अथाह, अनुमान से परे।
अगमुत्ता (वि.)  आग में मूतने वाला, अत्यधिक शैतान, एक गाली।
अगा (अव्य.)  संबोधन शब्द ‘ए’।
अगाड़ी (क्रि.) वि.  आगे, सामने, आगे।
अगास दिया (सं.)  आकाशदीप।
अगियाना (क्रि.)  1. जलन का अनुभव होना 2. जल उठना 8. आगबबूला होना।
अगीत (क्रि.) वि.  दे. ‘अगाडी’।
अगोरना (क्र.  प्रतीक्षा करना, बाट देखना।
अग्घन (सं.)  अगहन मास।
अग्याँ (सं.)  1. आज्ञा, आदेश बालतोड़, फोड़ा।
अग्यारा (वि.)  ग्यारह की संख्या।
अघरिया (सं)  एक जाति विशेष।
अघात (स.  चोट, प्रहार।
अघात ले (वि.)  बहुत, खूब। (क्रि.) वि. छकने तक, मन के भर तक, पूरा संतुष्ट या तृप्त होने तव थकने तक।
अघाना (क्रि.)  1. छक जाना, ऊब जान तृप्त हो जाना 1. थकना।
अघाय (वि.)  पेट भरा हुआ।
अघुआ (वि.)  सामने रहने वाला, लीडर।
अघुआना (क्रि.)  जागे हो जाना।
अघोरी (वि.)  ऐसा व्यक्ति जो खूब खाक भी अतृप्त रहे।
अचंभों (सं.)  आश्चर्य, विस्मय।
अचवानना (क्रि.)  खाट के पैताने की ररस्स खींचना, अलवायन कसना।
अचहड़-पचहड़ (वि.)  1. पाँच से अधिक 2. ढेर सारा।
अचहर-पचहर (वि.)  दे. अचहड़-पचहड़
अचानचकरित (वि.)  अचंभित, विस्मित, चकित । (क्रि.) वि. अचानक।
अचोना (क्रि  खाने के बाद हाथ-मुँह धोना।
अजरहा (वि.)  बीमार, रुग्ण ।
अजरा (सं.)  1. रोग 2. दो धानों का मिश्रण 3. योंहीं, बिना नापे तौले 4. अंदाज से।
अजार (सं.)  पेट की एक प्राणधातक बीमारी।
अजारा (वि.)  बिना माप या तोल के केवल अंदाज से प्रदत्त ।
अटकपारी (सं.)  अधकपारी, आधे कपाल का दर्द जो सूर्योदय के समय शुरू, मध्याह्न में सर्वाधिक और शाम को कम हो जाता है।
अटरकर (सं.)  अनुमान, अटकल।
अटकन-बटकन (वि.)  थोड़ा-बहुत।
अटकार (सें.  1. बाधा, बंधन, रुकावट, हरजा 2. आवश्यकता।
अटकाव (सं.)  हरजा।
अटर्रा (सं.)  नीबू की जाति का खट्टा मीठा स्वाद वाला एक फल।
अटाटूट (वि.)  1. प्रचुर परिमाण में 2. अपार।
अटाटोर (सं.)  दे. ‘अटाटूट’।
अठुरिया (सं.)  आठ दिनों का समूह।
अठोरिया (सं.)  दे. अठुरिया
अड़कड़ी (सं.)  इधर-उधर भाग जाने के अभ्यस्त जानवर को रोकने के लिए पैरों में बाँधी जानेवाली लम्बी लकड़ी।
अड़गड़ (सं.)  दरवाजे में रोक के लिए लगाया गया बाँस, अर्गला।
अड़गड़ी (सं.)  1. अर्गला 2. दे. ‘गड़गड़ी’।
अड़गसनी (सं.)  अरगनी, कपड़ा सुखाने के लिए बाँधा गया बाँस।
अड़बड़ (सं.)  भीड। (वि.)  प्रचुर, बहुत।
अड़हा (वि.)  मूर्ख, संस्कारहीन, बिना पढा-लिखा, जिद्दी।
अड़हा बइद (सं.)  नीम हकीम।
अड़ानी (वि.)  अनाड़ी, अनजान।
अड़ीसा (सं.)  चावल और गुड से चना पकवान। दे. ‘अनरसा’।
अइरसा (सं.)  दे. अड़ीसा
अड़ुक (वि.)  इतना। दे. ‘अतका’।
अढ़ई (वि.)  ढाई, अढ़ाई।
अढ़ाम (सं.)  ढाई, व्यक्ति के जमीन पर गिर पडने से उत्पन्न ध्वनि, धड़ाम।
अढ़ैया (वि.)  ढाई दिन के अंतर से आनेवाला ज्वर।
अढ़ोना (क्रि.)  आदेश देना।
अतकहा (वि.)  कुछ अधिक, ज्यादा।
अतका (वि.)  1. थोड़ा  2. इतना 3. इस सीमा तक।
अतकी (वि.)  थोड़ा। दे. ‘अतका’।
अतकेच (क्रि.) वि.  इतना ही।
अतको मा (क्रि.) वि.  इतने पर भी।
अतमयती (सं.)  1. जातीयता, आत्मीयता 2. स्वजातीय सहभोज ।–(वि.) आत्मीय, प्रिय।
अत्तर (सं.)  इत्र।
अतेक (वि.)  दे. ‘अतका’।
अत्तहा (क्रि.) वि.  पहले के।
अथान (सं.)  अचार।
अदरा (सं.)  आर्द्रा नक्षत्र। — (वि.) नौसिखिया।
अदहरा (सं.)  कंडे का अलाव, जीर्ण-शीर्ण।
अदियावन (वि.)  जिसे देखकर दया उत्पन्न हो, दयनीय।
अद्धर (वि.)  1. अलग, पृथक 2. ऊँचा।
अधकपारी (सं.)  1. आधे कपाल में दर्द का रोग 2. आधाशीशी।
अधिया (सं.)  कृषि उपज का आधा भाग। — (वि.) आधा लेनेवाला।
अन (उप.)  नहीं। उदा.–अनदेखना, अनभल।
अनख (सं.)  ईष्या, जलन।
अनगैंइहाँ (वि.)  दूसरे गाँव का।
अनगोडवा (वि.)  ऊटपटाँग, अव्यवस्थित, बेसिर-पैर का।
अनचिन्हार (वि.)  अपरिचित।
अनठेहरा (वि.)  1. तिरछा देखने वाला, जिसकी पुतलियाँ स्थिर न हाँ 2. टेढा, भेंगा 3. बनती हुई बात में टाँग अड़ाने वाला 4. लक्षणा में बात कहने वाला।
अनते (वि.)  अन्यत्र, दूसरे स्थान पर।
अनदेखना (वि.)  ईष्यालु, दूसरे को काम करते देखकर स्वयं वही करके टाँग अड़ाने वाला।
अनपचन (सं.)  अनपच, अजीर्ण।
अनबोला (सं.)  1. शत्रुता 2. मान, क्रोध आदि के कारण बातचीत बन्द होने की स्थिति।
अनभल (सं.)  बुराई, अहित।
अनभरोसिल (क्रि.वि.)  शायद।
अनमन (वि.)  उदास।
अनरसा (सं.)  चावल, गुड और खसखस के मिश्रण से बना एक पकवान, इंदरसा।
अनवट (सं.)  एक आभूषण।
अनवासना (क्रि.)  नई वस्तु का उपयोग प्रारंभ करके उसकी नवीनता को समाप्त करना।
अनाचार (सं.)  अत्याचार, पाप का कृत्य परंपरा-विरुद्ध कार्य।
अनाथिन (सं.)  अनाथ (महिला
अनानास (सं.)  अनन्नास।
अपंगहा (वि.)  पंगु।
अपखया (वि.)  1. अभक्ष्य भक्षण करने वाली 2. स्त्रियों की एक गाली।
अपजस (सं.)  अपयश, बदनामी।
अपन (सर्व.)  अपना।
अपन-विरान (सर्व.)  अपना-पराया।
अपया (सं.)  बदनामी, अवगुण।
अपरस (सं.)  चमडी का एक रोग जिसमें त्वचा से भूरे रंग की परत-सी निकलती है।
अपहाँस (सं.)  उपहास।
अपासी (सं.)  आबपाशी, सिंचाई। — (वि.) सिंचाई की व्यवस्था युक्त।
अप्पत (वि.)  जिद्दी, बेशर्म।
अबिरथा (वि.)  व्यर्थं, बेकार का।
अबेर (सं.)  देर, विलंब।
अबेरहा (वि.)  देर से आनेवाला।
अब्बड़ (वि.)  दे. ‘अड़बड़’।
अभियावन (वि.)  भयावना, डरावना।
अभिच (क्रि.) वि.  अभी ही, अभी-अभीद्य।
अमचुर (सं.)  कच्चे आम के टुकडों को सुखा कर बनाया गया चूर्ण, अमचूर।
अमरइया (सं.)  आम्र-कुंज आम के वृक्षों का बाग, अमराई।
अमरना (क्रि.)  पहुँचना, ऊँचाई पर स्थित वस्तु को प्रयत्नपूर्वक स्पर्श करना अथवा इस प्रकार उसे प्राप्त करना।
अमरित (सं.)  अमृत।
अमरोइया (वि.)  पहुँचाने वाला।
अमली (सं.)  इमली ।
अमसरा (सं.)  पके हुए आमों के रस को सुखा कर जमाया गया खाद्य, अमावट, अमरस।
अमाना (क्रि.)  समाना, घुसना।
अम्मठ (वि.)  खट्टा, खट्टे स्वाद वाला।
अम्मठ (वि.)  दे. ‘अम्मट’।
अम्मर (सं.)  अमृत। — (वि.)  अमर।
अयरी (सं.)  आरी।
अरई (सं.)  जुते हुए पशुओं को हाँकने के लिए प्रयुक्त डंडा जिसके एक सिरे पर कील लगी होती है।
अरकटहा (वि.)  लक्ष्यहीन, दिशाहीन।
अरथ (सं.)  अर्थ।
अरमपपई (सं.)  पपीते का वृक्ष या उसका फल।
अरसी (सं.)  अलसी।
अरिया (सं.)  आला।
अरूआ (सं.)  बिना उबाले धान से कूटा गया चावल।
अर्र (अव्य.)  जुते हुए बैल को दाहिने से बाएँ हाँकने के लिए प्रयुक्त ध्वनि। दे. ‘तत्ता’।
अलकर (वि.)  कष्टदायक, असुविधाजनक, गुप्त, कष्टसाध्य।
अलकरहा (वि.)  अनपेक्षित।
अलखा (सं.)  अंचल।
अलगा (सं.)  चप्पल, जूता।
अलटना (क्रि  उमेठना।
अलथी-कलथी (सं.)  छटपटाहट, तड़पन।
अलबेला (वि.)  अल्हड़।
अलमल (वि.)  पर्याप्त, संतोषप्रद मात्रा में।
अलबाइन (वि.)  ऊधमी, शैतान। दे. अलवाईन
अलवा-जलवा (वि.)  ऐसा-वैसा, व्यर्थ का, हीन कोटि का। फालतू।
अलबान (सं.)  1. शाल 2. रुमाल। दे. अलवान
अलहन (सं.)  विपदा, संकट, झंझट, दुर्घटना।
अलाउंस (सं.)  घोषा, एनाउंस।
अलाल (वि.)  आलसी, सुस्त।
अलिन-गलिन (सं.)  गली-गली।
अलोना (वि.)  नमक रहित, स्वादहीन।
अल्लर (वि.)  सुस्त। दे. ‘उल्लुर’।
अल्होरना (क्रि  अन्न आदि के ढेर से कचरे को अलग करने की प्रक्रिया।
अवइया (वि.)  आनेवाला।
अवतरना (क्रि.))  जन्म लेना, उत्पन्न होना।
अवाज (सं.)  आवाज।
असंख (वि.)  असंख्य, अनगिनत।
अस (सं.)  अस्थि। — (वि.) दे. अइसन
असकट (सं.)  ऊब, परेशानी, उकताहट, आलस्य।
असकटना (क्रि.)  तंग होना, ऊब जाना, उकता जाना।
असकरवा (सं.)  नियोजित परिवार। (वि.) एकाकीं।
असकराना (क्रि.)  1. कपड़े की तह खोलना। एक पर्त में फैलाकर रखना, बिछाना, फैलाना।
असकरिया (सं.)  एक तल्लेवाला जूता। दे. अकतरिया, पनही। — (वि.) कूटने की पहली प्रक्रिया का चावल।
असकरी (वि.)  इकहरा कपडा़।
असकिटियाना (क्रि.))  दे. ‘असकटाना’।
असकुड़ (सं.)  बैलगाडी के पहिए में उपयोग में आनेवाला लोहे का डंडा। दे. अछौद
असगुन (सं.)  अपशकुन।
असढि़या (सं.)  आषाढ का प्रभावी विषयुक्त सर्प विशेष। दे. ‘धमना’।
असत (सं.)  झूठ।
असती (वि.)  दे. ‘अधोरी’। दे. ‘असत्ती’।
असत्‍ती (वि.)  1. स्त्रियों की एक गाली। 2. चरित्रहीन। 3. बहुत तंग करने वाली। .
अस्थान (सं.)  स्थान, जगह।
असन (वि.)  दे. अइसन
असनान (सं.)  स्नान। (सं.) दे. ‘असनान’।
असरोना (क्रि.)  प्रतीक्षा करना, आशा लगाना।
अलबार (सं.)  सवार, सवारी करने वाला, चढ़ा हुआ व्यक्ति।
असाद (वि.)  आलसी, साफ-सफाई न रखनेवाला। असाधु।
असीस (सं.)  आशीष, आशीर्वाद।
असुधहा (वि.)  अशुद्ध, अस्वच्छ।
असोडढिया (सं.)  दे. ‘असढिया’।
असोना (क्रि  अन्न को साफ करना, अनाज उड़ाना। दे. ‘ओसाना
अहमी (वि.)  घमंडी।
अहिवात (सं.)  सुहाग, सौभाग्य।
अहिवाती (वि.)  सौभाग्यवती।

कुल 264 शब्‍द

The post अ – छत्‍तीसगढ़ी हिन्‍दी शब्‍दकोश appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).


आ, इ, ई, छत्‍तीसगढ़ी हिन्‍दी शब्‍दकोश

$
0
0

आँकना (क्रि.)  चिकित्सा के उद्देश्य से शरीर के पीडित भाग को गर्म लोहे से जलाना या दागना।
आँकुस (सं.)  1. अंकुश 2. नियंत्रण।
आँखी (सं.)  आँख।
आँच (सं.)  लौ की गरमी, हल्का ताप।
आँजर-पाँजर (सं.)  1. शरीर का पिंजरा, विशेषत: शरीर की नश्वरत्ता संकेतित करने के लिए प्रयुक्त शब्द। दे. “ढाँचा” 2. अंग-प्रत्यंग।
आँट (सं.)  1. रस्सी की ऐंठ 2. चबूतरा।
आँटना (क्रि.)  1. रस्सी बँटना 12. घुमाना, चलाना।
आँटी (सं.)  1. रस्सी बँटने का लकड़ी का बना उपकरण 2. दे. बाँटी 3. खेल की एक स्थिति।
आँठ (सं.)  बैठने के लिए बनाई गई दीवार से लगी मुँडेर । –(वि.))  गाढा ।
आँठना (क्रि.)  ऐंठना, रस्सी-जैसी वस्तु में घुमाव देना
आँठी (सं.)  दही का थक्का ।
आँड़ग (वि.)  1. अधिक । 2. अकथ्य भाव-युक्त ।
आँतर (सं.)  1. भूमि का बिना जुता या जोत में छूट गया भाग ५. अंतर । आँधी-चापर (सं.).)) आँख-मिचौनी की तरह का एक खेल ।
आँवर (सं.)  प्रसव के बाद का फूल, जाँत।
आँवा-जुड़ी (सं.)  दस्त की बीमारी
ऑसो (क्रि.वि.)  इसी साल ।
आकाबीसा (वि.)  एक से बढकर एक । दे. ‘तारासीरा’ ।
आगर (वि.)  अधिक, नाप-तौल से अधिक ।
आग लुवाट (सं.)  खीझ का मुहावरा
आगी (सं.)  अग्नि, आग ।
आगू (क्रि.वि.)  आगे, पहले, सामने ।
आगू-पाछू (क्रि.वि.)  आगे-पीछे, बहुत थोडे अन्तर से, बाद में
आघू (क्रि.वि.)  दे. ‘आयू’ ।
आछर (सं.)  अक्षर।
आठे (सं.)  श्रीकृष्ण के जन्म का पर्व, कृष्ण-जन्माष्टमी नो भादों मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को पड़ती है।
आड़ (सं.)  परदा, ओट, अवरोध, बीच में 1
आड़ा (सं.)  मोटा डंडा ।
आड़ी (सं.)  आयताकार में अधिक लंबाई का भाग। –(वि.))  1. लंबा 2. तिरछा
आतमा (सं.)  आत्मा।
आदा (सं.)  अदरक । .
आधसीसी (सं.)  आधे कपाल का दर्द । (वि.)) 1. अपूर्ण, अधूरा, कमजोर । 2. गर्भवती ।
आने (सर्व.)  कोई और, दूसरा, पराया, अन्य ।
आन-तान (वि.)  अनाप-शनाप, बिना विचार के।
आनना (क्रि.)  1. लाना 2. आने देना ।
आनी-बानी (वि.)  नाना प्रकार के, विविधता लिए हुए।
आन (वि.)  अन्य ।
आमसड़ा (सं.)  दे. ‘अमसरा’।
आमा (सं.)  आम का फल या पेड ।
आमा डगारी (सं.)  आम की डाल पर चढने का एक खेल।
आरी (सं.)  1. गाङी के पहिए के बीच की लकटड्ठी 2. दे. ‘अरई’ 8. आरी ।
आरुन (वि.)  शुद्ध । दे. आरूग
आरो (सं.)  आहट, समाचार।
आल (सं.)  नस ।
आलस (सं.)  1. आलस्य 2. चेचक
आवाँ (सं.)  कुम्हार की भट्ठी जिसमें वह मिट्टी के कच्चे पात्रों को पकाता है।
आसरा (सं.)  1. भरोसा, सहारा, आश्रय 2. गर्भ ।
आसा-तिसना (सं.)  आशा और तृष्णा।
आसों (क्रि.वि.)  इसी वर्ष । दे. ‘आँसो ।
इ 
इंदरावन (सं.)  एक औषधीय वृक्ष।
इंद्री (सं.)  इंद्रिय।
इदारगोई (सं.)  मित्र ।
इजारा (सं.)  ठेका ।
इटली (सं.)  इडली ।
इढ़र (सं.)  अरबी या घुइयाँ के पत्तों पर बेसन या उड़द के आटे को भाप में पकाकर बनाया गया एक खाद्य।
इढ़हर (सं.)  दे इढ़र
इतरौना (वि.)  इतराने वाला, चंचल ।
इनकर (सर्व.)  इनका ।
इफरात (वि.)  बहुत अधिक ।
इब्बा (सं.)  1. गुच्ची अर्थात् गिल्ली-डंडे के खेल में गिल्ली उछालने के लिए जमीन पर बनाया गया खाँचा या लंबा उथला गड्ढा 2. गिल्ली ।
इब्‍भा (सं.)  दे. इब्बा
इमान (सं.)  ईमान ।
इरखा (सं.)  जलन ।
इसारा (सं.)  संकेत, इशारा ।
इस्कूल (सं.)  स्कूल, शाला।
इहाँ (क्रि.वि.)  यहाँ, इस स्थान पर।
इहाँ-उहाँ (क्रि.वि.)  यहाँ-वहाँ ।
इहीचे (क्रि.वि.)  यहीं पर ।
ई 
ईकरा (क्रि.वि.)  इसी जगह, इसका उच्‍चारण ‘एकरा’ भी होता है।
ईचमेर (क्रि.वि.)  इसी जगह, इसका उच्‍चारण ‘एइमेर’ भी होता है।
ईंटकोरहा (वि.)  जो समुचित ढंग से गीला न हो, इसका उच्‍चारण ‘गिलगोटहा’ भी होता है।
ईंटा (सं.)  ईंट ।
ईंहा (सर्व.)  यह ।
ईसर (सं.)  ईश्वर।

The post आ, इ, ई, छत्‍तीसगढ़ी हिन्‍दी शब्‍दकोश appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

अपन अपन रुख

$
0
0

रुख रई जंगल के , बिनास देख , भगवान चिनतीत रिहीस । ओहा मनखे मन के मीटिंग बलाके , रुख रई लगाये के सलाह दीस । कुछ बछर पाछू , भुंइया जस के तस । फोकट म कोन लगाहीं । भगवान मनखे मन ल , लालच देवत किहीस के रुख रई के जंगल लगाये बर , मनखे ल , मुफत म भुंइया अऊ नान नान पऊधा बितरन करहूं , संगे संग घोसना करीन के , जे मनखे मोर दे भुंईया म बहुत अकन रुख , रई , झाड़ झरोखा लगाही , अऊ वोला सुरकछित राखही , ओमन ल जीते जियत परिवार समेत सरग देखाहूं ।

समे बीते के पाछू , रुख लगइया मन तीर पहुंचगे भगवान । एक झिन बतइस , हमन अइसे रुख लगाये हाबन , जे न केवल हमन ल सुख देवथे , बलकी अवइया हमर कतको पीढही ल सुख अऊ समरीद्धी दिही । भगवान किथे – तुंहर जंगल ल , देखतेन । दूसर दिन , बड़े जनीस भुंइया म बिसाल सभा के आयोजन , घंटों भासन , तहन रासन , सांझ कुन अऊ ……., रथिया अऊ…….। भगवान कसमसावत , आंखी ल मूंद लीस । दूसर दिन बिहाने ले भगवान फेर पचारिस – आज तोर रुख ल देखाते का जी ? ओ किथे – या.. काली नी देखेव का ? चलव ….. दूसर गांव म बड़े जिनीस सभा , कोरी खइरखा मनखे , पांव धरे के जगा निही , चारों डहर खोसकीस खोसकीस ……। भगवान पूछथे – कती करा हे तुंहर रुख , देखा मोला …. खाली भीड़ भडक्का म धुर्रा खाये बर ले आनथस । मनखे किथे – अतका कस मनखेरुख तोला नी दिखत हे भगवान …… , मुहूं ल फार दीस भगवान । भगवान पूछीस – ये कइसे रुख आय जी ? मेंहा रुख रई जंगल लगाये बर केहे रेहेंव , तूमन मनखे के जंगल लगा देव ? मनखे किथे – जे रुख लगाये ले सरग के सुख मिलही , तिही ल लगाये हाबन जी । भगवान रटपटा के किहीस – तूमन ल सरग लेगना तो दूर , जुरमाना होही , बिन हमर आगिया , हमरे जगा भुंइया म दू गोड़िया रुख लगा डरेव । मनखे किथे – जुरमाना …. रुख लगाये बर तोर भुइंया के एक इंच इसतेमाल नी करे हाबन , अऊ तो अऊ ये रुख के बाढ़हे बर तोर सुरूज के घाम तक नी ले हाबन । तैं खुदे देख …। भगवान धियान करके देखे लागीस । वाजिम म , भासन के खेत म , आसवासन के खातू , लालच के पानी अऊ मउकापरसती के घाम म खसकस ले उपजे रहय , बन बांदुर कस , मनखे रुख । बीच बीच म राहत के कीटनासक के छिड़काव करके , कीरा परे ले बचा डरय । भगवान पूछीस – एकर फल फूल म , तूमन ल कायेच फयदा होवत होही ? वो किथे – इहां के बात तोर समझ म नी आवय , ये रुख म जे फूल खिलथे , तेकर महक म कतको झिन बऊरा जथे । पांच बछर म एक बेर फूलथे , ये फूल के नाव वोट आय । इही वोंटफूल हा , कुछ दिन म खुरसी फर बन जथे , जेला एक बेर तहूं चिखबे ते , सरग ल भुला जबे , वापिस नी जांवव कहिबे । भगवान किथे – त मोर दे भुंइया अऊ पउधा के का होइस जी ? ओ मनखे किथे – तोरे दे जमीन अऊ अपन जमीर ल बेंचथन तभे , अतका कस मनखे पेंड़ ल पालथन भगवान …., रिहीस तोर पउधा के , होही कहूं करा फेंकावत , हमर सरग इंहे हे , हम का करबो तोर पउधा ल , लेग जा वापिस ……। मुड़ी पीटत , दूसर रुख लगइया खोजे लागीस …….।

तहूं रुख लगाथस का जी ? देखा भलुक , कइसने लगाये हस ? ओ किथे – तैं सी. बी. अई. के मनखे तो नोहस ? भगवान किहीस – अरे नोहो रे भई , मेंहा भगवान अंव …। वो फेर किथे – अच्छा ….., तोला , कन्हो जांच वाले समझत रेहेंव । तूमन ल हमर रुख का दिखही भगवान ? हमर साहेब खानदान म , हमन अपन रुख इहां नी लगावन , हमर रुख स्वीस बैक म जामथे । का….. मुहुं ला फार दीस भगवान ? ओ किथे – हव भई , हमन पइसा के रुख लगाथन , जेला कन्हो ल देखन नी देवन । जे देख डरथे , तेला नान नान चंटा देथन । भगवान खिसियइस – कस रे साहेब , अइसने रुख लगाये म तूमन ल सुख मिलथे रे ? जुरमाना लागही , बिन आगिया के दूसर के जगा भुंइया म रुख जगो डरे । ओ जुवाब दीस – काके जुरमाना भगवान , न तोर भुंइया , न तोर हवा , न तोर परकास । भगवान पूछीस – त कइसे जाम जथे तोर रुख ? वो किथे – कागज के खेत म , भरस्टाचार के खातू , जनता के लहू म सिचई अऊ हेराफेरी के घाम म मोर रुख लहलहाथे भगवान जी…… तैं का जानबे…… । लबारी के कीटनासक ओकर रकछा करथे । मोर लगाये रुख म , मोर सात पीढ़ही बइठे बइठे सरग कस खा सकत हे । भगवान किथे- मोर भुंइया ल का करेव ? ओ मनखे बतइस – उही ला गिरवी धरेन ……….. तभेच तो ……। धकर लकर दूसर कोती टरक दीस भागीस भगवान ।

गड्ढ़ा खनत मनखे ल पूछीस – रुख जगोये बर खनथस का जी ? वो किथे – का रुख लगाबे भगवान , ओला रात दिन , राजनीती के ढोर डांगर मन चर देथे । भगवान पूछीस – त गड्ढा काबर खनथस ? ओहा किथे – रुखेच जगोये बर आय , फेर अपन रुख जगोहूं । भगवान फेर पचारिस – हमर दे रुख नी लगावस का जी ? ओ किथे – ओला का करबे , आज लगाबे , काली उखानबे , नी उखानबे तभो उखनही , वइसे भी हमर देस के सरकारी भुंइया म तोर रुख जगोये के अऊ ओला खड़े राखे के ताकत निये । आज गड्ढा कोड़थन , महीना भर पाछू , रुख के जगा बिलडिंग खड़ा हो जथे । भाखा , जाति , छेत्र अऊ धरम के गड्ढा भले कभू नी पटाये , फेर रुख लगाये बर खने गड्ढा दूसरेच दिन पटा जथे । तोर दे रुख लगइच देबो त , तामझाम के भुंइया म , परचार के खातू अऊ सुवारथ के सिचई , खइत्ता ताय , कतिहां ले जामही …..। किरागे तंहंले , अवसरवादिता के कीटनासक म कतेक दम……। तेकर सेती , तोर दे रुख के ओधा म , हमन अपन रुख , अइसे जगा जगोथन , जेहा जामथे ते जगा भुंइया हा , सहर बन जथे । का …… भगवान सोंच म परगे ? देखइस अपन रूख ला ……..जेती देख तेती घरेच घर , बड़े बड़े बिलडिंग , फेकटरी ……. अऊ कांकरीट के जंगल । भगवान सुकुरदुम होगे ।

चिरहा कुरता पहिरे , बीता भर खोदरा पेट के मनखे का रूख लगावत होही ……इही सोंच रेंगत रिहीस । तभे अवाज अइस , रुख तो मोरो करा बहुत हे भगवान , फेर लगावंव कती । जे भुंइया ल मोर किथंव , तेला सरकार नंगा लेथे , बिन भुंइया के कामे जगो डरंव । जियत जियत सरग जाये के साध म , एक ठिन रुख लगाये के उदिम , महूं कर पारथंव , फेर ओला पेंड़ाये म काटे पर जथे । भगवान किथे – अब समझ अइस , हमर जंगल ल कोन काट बोंग के परयावरन ल नकसान पहुंचाथे , लेगव ले नरक म एला । वो किथे – वा……. कइसे करथस भगवान , तैं कहत हस ते रुख ल काटना तो दूर , ओकर सुखाये डारा पाना ल सकेले म हमन पकड़ा जथन , ओ रुख मन ल टरक टरक भर के सहर म बेंचइया मन मलई खावत हे , अऊ हमन ल नरक लेगहूं किथस । में तो अपन रुख के बात करत हंव । भगवान किथे – देखा , तोरो रुख ल , कइसना हे ? वो रोवत किहीस – का देखावंव , गरीबी के खेत म , मेहनत के खातू अऊ पछीना के सिचई म , अरमान के रुख लगाथंव भगवान । फेर उहू ल , कलह अऊ सुवारथ के किरवा मन , सरकारी बिकास के पइसा कस चुहंक देथे । कतको सामपरायदिकता के बन बांदुर ल नींदथंव , तभो जामीच जथे । तियाग अऊ तपसिया के दवई हा , मंहंगई के घाम झेले नी सकय , लेसा जथे , ले दे के मोर अरमान के रुख बाढ़िच जथे , तब इही रुख के टोंटा मसक के , ओकर बोटी बोटी करके , अपन लइका पढ़हाथंव , येकरे कुटका ले हमर चूलहा म आगी सिपचथे , रंधनी खोली म कुहरा गुंगवाथे , मोर बिमार दई के दवई आथे , अऊ अपन बई के लाज ढांकथंव । मोर अरमान के रुख , मोला आज तक सुख नी दीस , त मोर नोनी बाबू ल का सुख दिही । ये रुख जबले जामे हे , मन म दुखेच उपजथे । अइसन रुख ल तोरे तीर लेग जते भगवान । भगवान किथे – में काये करहूं , इही रुख के सेती खुदे किंजरत हंव ये दुआर ले वो दुआर ………..।

हरिशंकर गजानंद देवांगन
छुरा.

The post अपन अपन रुख appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

उत्तर कांड के एक अंश छत्तीसगढी म

$
0
0

अब तो करम के रहिस एक दिन बाकी
कब देखन पाबों राम लला के झांकी
हे भाल पांच में परिन सबेच नर नारी
देहे दुबवराइस राम विरह मा भारी
दोहा –
सगुन होय सुन्दर सकल सबके मन आनंद।
पुर सोभा जइसे कहे, आवत रघुकुल चंद।।
महतारी मन ला लगे, अब पूरिस मन काम
कोनो अव कहतेच हवे, आवत बन ले राम
जेवनी आंखी औ भूजा, फरके बारंबार
भरत सगुन ला जानके मन मां करे विचार
अब तो करार के रहिस एक दिन बाकी
दुख भइस सोच हिरदे मंगल राम टांकी
कइसे का कारण भइस राम नई आईन
का जान पाखंडी मोला प्रभु विसराईन
धन धन तै लक्ष्मिन तै हर अस बड़भागी
श्रीरामचंद्र के चरन कवल अनुरागी
चीन्हिन अड़बड़ कपटी पाखंडी चोला
ते कारन अपन संग नई लेईन मोला
करनी ला मोर कभू मन मा प्रभू धरही
तो कलप कलप के दास कभू नई तरही
जन के अवगुनला कभू चित नई लावै
बड़ दयावंत प्रभु दीन दयाल कहावै
जी मा अब मोर भरोसा एकेच आवै
झट मिलहि राम सगुन सुभ मोला जनावै
बीते करार घर मा परान रह जाही
पापी ना मोर कस देखे मां कहूं आही
दोहा –
राम विरह के सिन्धु मां, भरत मगन मत होत।
विप्र रूप धर पवन सुत, पहुंचिन जइसे पोत।।

पद्मश्री डॉ.मुकुटधर पाण्‍डेय

(श्री राकेश तिवारी जी द्वारा सन् 1996 म प्रकाशित छत्‍तीसगढ़ी काव्‍य संग्रह ‘छत्‍तीसगढ़ के माटी चंदन’ ले साभार)

The post उत्तर कांड के एक अंश छत्तीसगढी म appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

दानलीला कवितांश

$
0
0

जतका दूध दही अउ लेवना।
जोर जोर के दुध हा जेवना।।
मोलहा खोपला चुकिया राखिन।
तउन ला जोरिन हैं सबझिन।।
दुहना टुकना बीच मढ़ाइन।
घर घर ले निकलिन रौताइन।।
एक जंवरिहा रहिन सबे ठिक।
दौरी में फांदे के लाइक।।
कोनो ढेंगी कोनो बुटरी।
चकरेट्ठी दीख जइसे पुतरी।।
एन जवानी उठती सबके।
पंद्रा सोला बीस बरिसि के।।
काजर आंजे अंलगा डारे।
मूड़ कोराये पाटी पारे।।
पांव रचाये बीरा खाये।
तरुवा में टिकली चटकाये।।
बड़का टेड़गा खोपा पारे।
गोंदा खोंचे गजरा डारे।।
पहिरे रंग रंग के गहना।
ठलहा कोनो अंग रहे ना।।
कोनो पैरी चूरा जोड़ा।
कोनो गठिया कोनो तोंड़ा।।
कोनों ला घुंघरू बस भावे।
छम छम छम छम बाजत जावें।।
खनर खनर चूरी बाजै।
खुल के ककनी हाथ विराजे।।
पहिरे बहुंटा और पछेला।
जेखर रहिस सौंख हे जेला।।
दोहा-
करधन कंवर पटा पहिर, रेंगत हाथी चाल।
जेमा ओरमत जात हे, मोती हीरा लाल ।।

पं.सुन्‍दर लाल शर्मा


(श्री राकेश तिवारी जी द्वारा सन् 1996 म प्रकाशित छत्‍तीसगढ़ी काव्‍य संग्रह ‘छत्‍तीसगढ़ के माटी चंदन’ ले साभार)

The post दानलीला कवितांश appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

गदहा मन के मांग

$
0
0

एक दिन गदहा मन के गांव म मंझनिहां बेरा हांका परिस- गुडी म बलाव हे हो- ढेंचू , जल्दी जल्दी सकलावत जाव हो ढेचू। सुनके गांव के जम्मो गदहा गुडी म सकलागे, कोतवाल गदहा ल पूछेगिस- कोन ह मईझनी-मंझनिहा बईठका बलाय हे ? तब एकझन सियान गदहा ह बोलिस-में ह बलायहंव ग बईठका ल, बात ये हे के आज बिहनिया बेरा जब में ह ईस्कूल कोती चरेबर गेरहेंव, त ईस्कुल के खिडखी ह खुल्ला रहिस हे,ओती ले अवाज आवत रहिसहे जेमा- बडे गुरूजी ह छोटे गुरूजी मन ल खिसियावत काहत रहिसहे के कोन्हों लईका ल अब भूल के भी गदहा नई कहना हे यदि कोनो गदहा कहेव त तुमन ल जेल जाय ल पड जही, अतका ल सुनके में ह गुनेव – आज मोटर-गाडी के जमाना म हमर काम-बूता ह तो नंदा गेहे कोन्होकाल के ईस्कुल म हमर नाव ह चलत हे तेनो ह नंदा जही तईसे लागथे, अईसन म तो हमर कोन्हों जघा पुछारी नई रईही। अतका ल सुनके ऊंहां बईठे जवान गदहा मन तमतमागे, अउ बडे गुरूजी ल फलान-ढेकान कहेबर सुरू करदिस, तब सरपंच गदहा ह सब झन ल चुप करावत कहिस के अरे छोकरा हो थोरकन धीरज धरव न जी, पहिली बडे गुरूजी ल इंहा बला के पूछ तो लव, वो ह अईसन काबर कहिस तेला। तब जवान गदहा मन खुरचत- खुरचत चुप होगे अब कोतवाल गदहा ल बोलेगिस के जा बडे गुरूजी ल बला के लाबे, कोतवाल ह बडे गुरूजी ल बलायबर चल दिस।
एती जम्मो गदहामन आपस म बिचार करके निरनय लिन के ये मनखेमन के मनमानी ह मुडी ले उप्पर नहांकतहे, अब कुछ न कुछ जतन करेच्चबर परही, सबोझन हव कहिके एकमत होगे। ओतकेबेर कोतवाल संग बडे गुरूजी ह बईठका म पहुंचगे, जवान गदहामन बडे गुरूजी ल देख के आंखी ल तरेरेबर लगिन, गुरूजी घलो सकपकागे, सोंचेबर धर लिस के का बात होगे… तभे सरपंच गदहा ह बडे गुरूजी ल जय जोहार करिस अउ पीपरतरी चउरा म बइठारिस, अब सब्बेझन चूप होगे, भई गुरूजी आखिर गुरूजी होथे ओखर आघू म बडे बडे के मुंह सीला जथे, देख-ताक के गोठियाय ल परथे, ये दसा ल समझ के बडे गुरूजी ह कहिस- का बात हे सरपंच जी, कटकट ले जुरियाय हव जी अउ मोला काबर बलवायहव ग । तब सरपंच गदहा ह हिम्मत ल बटोर के जम्मो बात ल गुरूजी ल बतईस अउ पूछिस के आपमन काबर छोटे गुरूजी मन ल बरजत रहेव के कोन्हों लईका ल भूल के भी गदहा नई कहना हे कहिके।बडे गुरूजी ह समझगे के जवान गदहामन काबर वोला गुर्री गुर्री देखत हाबय, अउ कहिस के आर. टी. ई. आगे हे सरपंच जी।सरपंच गदहा कथे आंय… आर. टी. ई.,ये काय बला ये गुरूजी। कोन्हों गदहा समझ नई पईन, तब सरपंच गदहा ह पूछथे ये आर. टी. ई. ह का हरे गुरूजी, बने फोर के बतावव। बडे गुरूजी ह समझावत कहिस – ये ह हमर देस के नवा कान्हून हरे जी, जे ह कहिथे- हमर देस के जम्मो लईका ल बिना खरचा के आठवी तक पढे के अधिकार हे, अउ ये पढई म कोन्हों लईका ल मारना पीटना नई हे, गारी गल्ला तको नई देना हे, कुकूर-बिलई-बेंदरा अउ गदहा घलो नई कहना हे, यदि कोन्हों कईही त कान्हून ह ओखर बूता बना दीही, उही बात ल मे ह छोटे गुरूजी मन ल बतावत रहेंव जी जेला तूंहर सियान गदहा ह सुन डरिस, अब तूहीमन बताव, मे ह का गलत कहेंव। अतका ल सुनके पूरा बईठका म बिरबिट ले सांति झपागे।थोरकन देर म सरपंच गदहा ह कथे- बडे गुरूजी आपमन ठीके कहे हव।…फेर आपमन गुरूजी हरव, जम्मो मुस्किल ले पार निकले के रद्दा बतईया, मोर आपमन ले बिनती हे के आपेमन कउनो अइसन उपाय बतावव जेमा हमर नामो चलत रहय अउ आपोमन ल कांही झन होय। तब बडे गुरूजी ह थोरकन गुने के बाद कहिस- एक काम करव सरपंच जी, तुमन दिल्ली जावव ऊंहां एकठन रामलील्ला मईदान हे, जिहां जाके धरना देके बईठ जव। कोनो गदहा समझ नई पईन के ये गुरूजी ह का काहत हे।तब सियान गदहा पूछथे- ये धरना ह का हरे, त बडे गुरूजी बताथे- धरना मतलब अपन मांग ल सरकार ले मनवाय खातिर बिन खाय पिये जुरिया के कई दिन ले तब तक बईठे रहना जब तक सरकार ह मांग ल नई मान जाय। तुमन सरकार ले एक्केठन मांग करहू के आर. टी. ई. म सुधार करे जाय, जनरल परमोसन ल बंद करे जाय अउ लईका मन के फेल-पास ल फेर सुरू कर दिये जाय, काबर के लईका मन तो पास हो जथंन कहिके पढना-लिखना ल बंद कर देहे अउ गुरूजी मन पढाना।बस अतके बोलहू सरकार करा।एकबार फेल-पास ह सुरू हो जही तहांले फेर गुरूजी मन लईका मन ल बने पढाय खातिर मारही पीटही अउ गदहा घलो कईही, अईसन म ईस्कूल म तूंहर नांव घलो चले बर धर लिही अउ हमूंमन कान्हून ले बांच जबोन जी ।तब सरपंच गदहा पूछथे- हमर बात ल सरकार ह मान जही गुरूजी! तब गुरूजी कथे- हां जी, बस तूंहर जुरियाय के देरी हे, तुमन ऊंहा देखहू कईझन पत्रकार अउ टीवी वाला मन झूम जही, ओखर मन के आवत देरी रथे तहां ले भीड घलो जुरिया जथे, सरकार के बिरोधी पार्टी वाले नेता मन तो अइसने घटना ल खोजत रहिथे, तूंहर संग वहुमन धरना म बईठ जही अउ तूंहर पूरा सांथ दीही।अतका ल सुनके जम्मो जुरियाय गदहा मन हांमी भर दीन, सरपंच गदहा ह हूंत करात बोलिस के दू दिन बाद जम्मो गदहा ल अपन बाल-बच्चा सहित खाना-खर्चा ल धर के दिल्ली कूच करे बर टेसन म इकट्ठा होना हे।
अब दू दिन का महिना भर दिन बीतत हे,फेर गदहा मन दिल्ली कूच नई कर पाय हे, चउक-चउक म उंघाय खडे हे, कोनो अघुवा बनही त संग म लग जबो सोंचत हे, झंझट अउ खरचा ल घलो डर्रात हे।
अईसनहे आज हमरो हाल हे, सब ल समझ म आवत हे के ये नवा सिक्छा कान्हून म बडका खामी हे, अउ वो हे- जनरल परमोसन, हमर लईका मन पढई म लगातार पिछवावत जात हे, फेर ये बात ल उठाय बर कोनो अघुवा के इंतजार म हे। हे भारत माता तोर लईकामन कब जागही वो ?

ललित वर्मा “अंतर्जश्न”
छुरा

The post गदहा मन के मांग appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

पर भरोसा किसानी : बेरा के गोठ

$
0
0

रमेसर अपन घर के दुवारी मा मुड़ धर के चंवरा मा बैइठे हे उही बेरा बड़े गुरुजी अपन फटफटी मा इस्कूल डाहर जावत ओला देख परीस।खड़ा होके पूछिस का होगे रमेसर? कइसे मुड़धर के बइठे हस ? रमेसर पलगी करत कहिस- काला काहंव गुरुजी, बइला के सिंग बइला बर बोझा। तुही मन सुखी हव।गुरजी कहिस-तब कहीं ल बताबे कि अइसने रोते रबे, बोझा ल बांटबे त हरु होही।बिमारी के दवाबूटी करे जाथे। रमेसर हाथ मा मुड़ी धरे कहे लगीस- किसानी के दिन बादर आगे गुरजी ,हाथ मा एकोठन रुपया नइ हे। पाछू बच्छर के करजा छुटाय नइ हे।फेर खेती किसानी करना हे कइसे होही कहिके मुड़ी धर के बइठे हंव।असाढ़ के बादर घुमत हे खेती संवारे बर तुतारी देवत हे।गुरुजी कहिस- देख रमेसर कहे जाथे “खेती अपन सेती” फेर आज तुमन पर भरोसा खेती किसानी करत हव। परोसी के हाथ म सांप मरवाय ले काय होथे तेला जानत हस।आज धान के बिजहा नइ राखत हव।हाइब्रिड के चक्कर मा पइसा लुटावत हव ।घुरवा के गोबर खातू स्वचछता अभियान के चढ़ावा मा चल दिस।रसायनिक खातू,दवई मा खरचा करत हव। कमाय बर कोढ़िया होगेव ।नांगर बइला उन्नत खेती मा फंदागे।टेक्टर मा जोतई बोवई अऊ मतई करत हव।सब पर भरोसा।पइसा नइ हे तब करजा बोड़ी करत हव।इही उन्नत खेती आय।निंदई नइ करके निंदानासक बउरत हव।धान ल कतकोन बिमारी ले बचाय खातिर, बाढ़े अऊ, पोटराय खातिर आनी बानी के रसायनिक दवई डारत हव।आखिर मा लुवाई अऊ मिजाई घलाव ल टेक्टर थ्रेसर हारवेस्टर मा करत हव। अतका होय के पाछू धनलक्ष्मी ल अपन घर मा नइ लावव, बहिरे बहिर भाड़ा करके मंडी भेजवा देवत हव। अब बता रमेसर कोन करा तै अपन जांगर खपाय अऊ कोन करा पइसा बचाय।तोर खेती मा तैं नांगर नइ जोते, धान नइ बोय, निंदई नइ करे,खातू कचरा नइ डारे, लुवई मिंजई नइ करे तब तैं करजा मा नइ बूढ़बे त कइसे करबे।पर भरोसा खेती करत हस तभे मुड़ धरके रोवत हस। रमेसर मूहूं फार दिस।गुरुजी के सबो गोठ सुन के ओकर बुध पतरा गे। थोकिन साहंस भरके कहिस- सही कहात हव गुरुजी फेर कइसे कर सकत हन। पढ़े लिखे बहू आय हे ओ खेत नइ जान कहिथे।बेटा पढ़ लिख के नउकरीच खोजत हे।खेती नइ करंव कहिथे। गाय गरु झन रखव कहिके बइला ल बेंचवा दिन हे।हमर मन के उमर बाढ़त हे अऊ जांगर खंगत हे।बनिहार नइ मिलय।तब खेत ल परिया घलो नइ पार सकन।ऐकर सेती अइसने किसानी करत हन। गुरुजी पूछिस – तोर खेत मा तो बोर खनाय हस का? के फसल लेथस। कहां गुरुजी , बोर मा पानी कम निकलिस त धान के एक फसल लेथंव। बस इही तोर करजा मा लदाय के कारन आय। आजकल तीन फसल के खेती होवत हे अउ तैं एक फसल मा घिरयाय हस। मोर बात ल मान अउ ऐसो ले कम से कम तीन फसल लेय के उदिम कर ,कम पानी वाला फसल लगा एकर बर ग्राम सहायक मन संग मिल अउ गोठिया।अतका सुनके रमेसर के मुड़ी ले हाथ उतर गे। गुरुजी कहिस – सुन रमेसर आज करजा मा खेती तोरेच गलती नइ हे एकर बर बहुत झन जिम्मेदार हावय।बिदेसी नकल,सरकार के नीति अऊ सरकारी अधिकारी, उन्नत खेती के भरम, दवई बेचाईया कंपनी ,सही जनकारी नइ होना अउ पर भरोसा खेती।

हीरालाल गुरुजी “समय”
छुरा जिला-गरियाबंद

The post पर भरोसा किसानी : बेरा के गोठ appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

योग करव जी (कुकुभ छंद)

$
0
0

मनखे ला सुख योग ह देथे,पहिली सुख जेन कहाथे ।
योग करे तन बनय निरोगी,धरे रोग हा हट जाथे।।1

सुत उठ के जी रोज बिहनियाँ,पेट रहय गा जब खाली ।
दंड पेल अउ दँउड़ लगाके, हाँस हाँस ठोंकव ताली ।।2

रोज करव जी योगासन ला,चित्त शांत मन थिर होही ।
हिरदे हा पावन हो जाही,तन सुग्घर मंदिर होही।।3

नारी नर सब लइका छउवा, बन जावव योगिन योगी ।
धन माया के सुख हा मिलही,नइ रइही तन मन रोगी।।4

जात पाँत के बात कहाँ हे, काबर होबो झगरा जी।
इरखा के सब टंटा टोरे, योग करव सब सँघरा जी।।5

जेन सुभीता आसन होवय,वो आसन मा बइठे जी।
ध्यान रहय बस नस नाड़ी हा,चिंता मा झन अइठे जी।।6

बिन तनाव के योग करे मा, तुरते असर जनाथे गा ।
आधा घंटा समे निकालव, मन चंगा हो जाथे गा ।।7

अनुलोम करव सुग्घर भाई, साँस नाक ले ले लेके ।
कुंभक रेचक श्वांसा रोंके, अउ विलोम श्वांसा फेके ।।8

प्राणायाम भ्रस्तिका हावय, बुद्धि बढ़ाथे सँगवारी ।
अग्निसार के महिमा गावँव, भूँख जगाथे जी भारी ।।9

हे कपालभाती उपयोगी, अबड़े जी असर बताथे ।
एलर्जी नइ होवन देवय, ए कतको रोग भगाथे ।।10

कान मूँद के करव भ्रामरी, भौंरा जइसे गुंजारौ ।
माथा पीरा दूर भगाही, सात पइत बस कर डारौ ।।11

ओम जपव उद्गीत करव जी, बने शीतली कर लेहौ ।
रोज रोज आदत मा ढालव, आड़ परन जी झन देहौ ।।12

चोवा राम “बादल”
हथबंद (छग)

The post योग करव जी (कुकुभ छंद) appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).


योग के दोहा

$
0
0

महिमा भारी योग के,करे रोग सब दूर।
जेहर थोरिक ध्यान दे,नफा पाय भरपूर।

थोरिक समय निकाल के,बइठव आँखी मूंद।
योग ध्यान तन बर हवे,सँच मा अमरित बूंद।

योग हरे जी साधना,साधे फल बड़ पाय।
कतको दरद विकार ला,तन ले दूर भगाय।

बइठव पलथी मार के,लेवव छोंड़व स्वॉस।
राखव मन ला बाँध के,नवा जगावव आस।

सबले बड़े मसीन तन,नितदिन करलव योग।
तन ले दुरिहा भागही,बड़े बड़े सब रोग।

चलव साथ एखर सबे,सखा योग ला मान।
स्वस्थ रही तन मन तभे,करलव योगा ध्यान।

जीतेन्द्र वर्मा “खैरझिटिया”
बाल्को (कोरबा)

The post योग के दोहा appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

उ-ऊ छत्‍तीसगढ़ी हिन्‍दी शब्‍दकोश

$
0
0

उँकर (सं.)  उकडू, पैरों के पंजों के बल बैठना।
उँचान (सं.)  ऊँचाई।
उँटवा (सं.)  ऊँट।
उँटिहार (सं.)  ऊँटी दे.  लेकर गाड़ी के आगे-आगे चलने वाला व्यक्ति।
उंडा (वि.)  औधा, मुँह के बल।
उकठना (क्रि.)  बीती घटनाओं को सुना-सुना कर गाली-गलौज करना।
उटकना (क्रि.)  दे.  उकठना
उकेरना (क्रि.)  निकालना, रस्सी आदि की बटाई खोलना।
उखरू (सं.)  दे. ‘उँकरू’।
उखलहा (वि.)  1. ओछी तबीयत का, नीच स्वभाव का, दोषी। 2. जादा बोलने वाला, सहजता से वास्‍तविक बात बता डालने वाला।
उखरा (सं.)  रस से पगी लाई दे. । (वि.) नंगे पैर।
उखानना (क्रि.)  उखाड़ना।
उगता (सं.)  मजदूरी का ठेका।
उगती (सं.)  सूर्योदय।
उगोना पाख (सं.)  शुक्ल पक्ष।
उघरा (वि.)  1. शरीर के ऊपर वस्त्र न होना 2. खुला हुआ, बिना आवरण के।
उचारना (क्रि.)  खोलना।
उचंती (सं.)  थोडे समय के लिए लिया हुआ ऋण, अग्रिम राशि, – (वि.) चलने को उत्सुक।
उचना (क्रि.)  ऊँचा होना, उठना 2. जलना क्रियाशील होना।
उचाना (क्र.)  1. ऊँचा करना, उठान 1. जलाना, क्रियाशील करना 3. खर्च करना।
उच्छिन होना (क्रि.)  1. दृष्टि से ओझल हो जाना, अदृश्य हो जाना 2. उदास होना।
उछरना (क्रि.)  वमन करना।
उछराई (सं.)  1. कै का आभास, उल्टी कर का मन होना 2. अत्यधिक पिटाई।
उछला (वि.)  लबालब (खेत, तालाब आदि के सम्बन्ध में)।
उछार (सं.)  वमन, कै, उल्टी।
उछाल-तलाव (सं.)  हैजा।
उछाह (सं.)  उत्साह।
उजारना (क्रि.)  उजाड़ना।
उजियार (सं.)  उजाला, प्रकाश।
उजियारी (वि.)  उज्ज्वल।
उजीर (सं.)  धोबी।
उज्जर (वि.)  उज्ज्वल, सफेद, स्वच्छ, साफ।
उझारना (क्रि.)  नष्ट करना, उजाड़ना।
उझालना (क्रि.)  उछालना, ऊपर फेंकना, ऊपर-नीचे करना।
उटंग (वि.)  वस्त्र पहनने पर अपेक्षित लंबाई से उसका कम पाया जाना, धुलने पर कपड़े का लंबाई में सिकुड़ना।
उटकट (सं)  ऊब। दे. ‘असकरट’। – (.वि.) उत्कट, अत्यधिक।
उटकटाना (क्रि.)  दे. ‘असकटाना’।
उटकना (क्रि.)  ताना देना, व्यंग्य करना, उलाहना देना, अनपेक्षित पुरानी बातें कहना।
उटकुट (वि.)  दे. ‘उटकट’।
उठलँगरी (वि.)  स्त्रियों की एक गाली, जिसमेँ दुश्चरित्रता का बोध समाहित है।
उड़ासना (कि.)  बिस्तर उठाना, बिस्तर समेटना।
उडि़या (सं)  1. उड़ीसा का निवासी। 2. सँवरा जाति की एक उपजाति।
उडि़याना (कि.)  1. उड़ना 1. उड़ाना ।
उड़ेरा (वि.)  आकस्मिक।
उढ़ना (सं)  पहनने या ओढूने का वस्त्र, चादर, ओढनी। -(क्रि) ओढ़ना।
उढ़रिया (सं.)  1. भगाई हुई या भागी हुई औरत 2. विवाह का एक प्रकार। दे. ‘उढरी’।
उढ़री (सं.)  पति या पिता के घर को छोडकर भागी हुई औरत।
उढ़ेरना (क्रि.)  खाली करना।
उतरना (सं.)  एक प्रकार का कर्णाभूषण। – (क्रि) उतरना, नीचे जाना।
उतलंग (वि.)  1. ऊधम करने वाला। 2. उघम मचाने वाला।
उतान (क्रि. वि.)  पीठ के बल, सीधे चित्त। उत्तान।
उतान भँसेड़ा (वि.)  ऊटपटाँग, अव्यवस्थित, अनियमित।
उतारू (सं.)  ढलान।
उतियाइल (वि.)  नरटखट, ऊधमी, उतावला।
उतेरना (क्रि.)  गीले खेत में बीज फेंककर बौना।
उतेरा (सं.)  उतेरने (दे. ‘उतेरना’) के लिए बीज।
उत्ता-धुर्रा (वि.)  अनियंत्रित तरीके से, मनमाने ढ़ग से। – (क्रि. वि.) जल्दी-जल्दी।
उत्तिम (वि.)  उत्तम।
उत्ती (सं.)  1. पूर्व दिशा 2. सूर्योदय का काल।
उत्थल (वि.)  उथला।
उदंत (सं.)  जिस शावक के दूध के दाँत न टूटे हों।
उद (सं.)  1. प्रेत, मसान 2. मुर्दो को उखाड कर खानेवाला एक जंगली जानवर।
उदकना (क्रि.)  उछलना।
उदबास (सं.)  उपद्रव। – (वि.) उपद्रवी।
उदबिदहा (वि.)  उत्पात्त मचाने वाला, गडबड करने वाला, ऊधमी, उथल-पुथल करने वाला।
उदलना (क्रि.)  1. बोए गए बीजों का उमस के कारण बेकार हो जाना 2. भेलवा दे.  के प्रभाव से फोड़े हो जाना।
उदाली (सं.)  अपव्यय।
उदीम (सं.)  उद्यम, परिश्रम, यत्न।
उधवा (सं.)  मिसाई (दे. ‘मिसना’) करके रखा हुआ अनाज का ढेर।
उधाना (क्रि.)  टिकाना।
उधार (सं)  ऋण।
उधोनी (क्रि.)  समाप्त करना।
उन कर (सर्व.)  उन का, उन के, उन की।
उन खर (सर्व.)  दे. ‘उन कर’।
उन खर ले (सर्व.)  उन्हीं से।
उनारना (क्रि.)  दे. ‘ओनारना’।
उन्‍ना (सं.)  दे. ‘उढना’। — (वि.) खाली।
उन्हों (सं.)  कपड़ा।
उन्हारी (सं.)  रबी की फसल, गर्मी की फसल, दलहन की फसल।
उपनना (क्रि)  मार आदि का निशान दिखाई पडना, कोई भी चिह्न या वस्तु अचानक दिखाई पडना, उत्पन्न होना।
उपकाना (क्रि)  उखाड़ना।
उपत के (क्रि. वि.)  अपनी ओर से, स्वेच्छा से, स्वयं होकर।
उपटना (क्रि.)  दे. ‘उबवकना’।
उपदरा (सं)  उपद्रव, उत्पात्, ऊधम। (वि.) उपद्रवी।
उपदरी (वि. स्त्री.)  उपद्रवी।
उपर (क्रि. वि.)  ऊपर। (पर.) पर।
उपरना (सं)  दुपट्टा।
उपर सँस्सी (सं.)  साँस का ऊपर चलने का क्रम।
उपरहा (वि.)  आवश्यकता से अधिक, उपयोग के अतिरिक्त बचा हुआ।
उपरोहित (सं.)  पुरोहित, पंडित।
उपरौना (सं.)  दे. ‘पुरौनी’।
उपला (सं.)  सूखा हुआ गोबर। दे. ‘बिनिया छेना’।
उपसहिन (सं.)  उपवास रखने वाली स्त्री।
उपाई (वि.)  कुचक्री, गड़बड़ करने वाला, उपद्रवी।
उपास (सं)  उपवास।
उफनना (क्रि) उबल कर पात्र से बाहर निकलना।
उफलना (क्रि.)  सतह पर तैर आना, सतह पर आ जाना।
उबकना (क्रि.)  1. उभरना 2. उखड़ना।
उबजना (क्रि.)  उत्पन्न होना, उपजना (विशेषकर घनत्व के साथ)।
उबड़ी (वि.)  औधा, पेट के बल।
उबड़ी परना (क्रि.)  किसी चीज को पाने के लिए टूट पडना।
उबरना (क्रि.)  शेष रहना, निवृत होना, बचना।
उबारना (क्रि.)  मुक्त करना, उद्धार करना, उत्पत्ति में सहायता देना।
उभुक-चुभुक होना (क्रि.)  1. डूबना-उतराना 2. आगा-पीछा करना, अनिश्चय की स्थिति में होना।
उबुक-चुबुक होना (क्रि.)  दे. उभुक-चुभुक होना
उमन (सर्व.)  वे।
उम्मर (सं.)  1. आयु,  2. मीठापन।
उम्हर (वि.)  अत्यधिक मीठा।
उरई (सं.)  1..खस की घास 2. एक प्रकार का धान।
उरई जर (सं.)  उरई की जड़ अर्थात् खस।
उरकना (क्रि.)  1. कम पडना 2. समाप्त होना।
उरकहा (सं.)  फटने वाली जमीन।
उरभठ (वि.)  ऊबड़-खाबड़।
उरमाल (सं.)  रूमाल।
उररना (क्रि.)  खींचना, खींचकर निकालना।
उरला (वि.)  पीछे भार अधिक होने से आगे के हिस्से के उठ जाने की स्थिति, उठंग होने की स्थिति।
उल्‍ला (वि.)  दे. उरला
उरिद (सं.)  उर्द।
उरेरना (क्रि.)  बनाना।
उर्री-पुर्री (वि.)  लबालब। दे. उछला।
उर्रु (वि.)  कड़ा, सूखा।
उलँडना (क्रि.)  उल्टा हो जाना, संतुलन बिगड जाने के कारण लुढ़क पडना।
उलचना (क्रि.)  खाली करना, उलीचना।
उलदना (क्रि.)  औधा कर के ढालना, उलटना।
उलफुलहा (वि.)  कम बुद्धिवाला, प्रशंसा सुन कर प्रसन्न हो जानेवाला।
उलफुलाना (क्रि)  मतलब साधने के लिए उत्साहित करना।
उलरना (क्रि.)  1. गाडी का पीछे से वजनी होने की स्थिति में असंतुलित हो जाना 2. ढीला होना 3. ढीला करना। 4. बटी हुई रस्‍सी का बट खुलना।
उलरुवा (सं.)  उलरने (दे. ‘उलरना) की स्थिति मं गाडी को सहारा देने के लिए अड़ाई गई लकड़ी।
उलार (वि.)  दे. उरला।
उलेंडा (वि.)  दे. उछ़ेरा।
उल्लुर (वि.)  1. दे, ‘उरला’ 2. सुस्त, ढीला 3. कोमल ।
उल्हवा (वि.)  कोमल (पत्ते)।
उल्होना (क्रि.)  अंकुरित होना, कोंपल फूटना।
उसकारना (क्रि.)  पड़ी हुई वस्तु को खड़ा करना या उठाना।
उसनना (कि.)  उबालना।
उसना (वि.)  उबाला हुआ।
उसनिंदा (वि.)  निद्रातुर, जिसकी नींद पूरी नहीं हुई हो, उनींदा।
उसयाइल (वि.)  1. सूजा हुआ (अंग-विशेष)। 2. मैला-कुचैला, गंदा, फूहड।
उसरना (क्रि.)  कार्य समाप्त होना, निवृत्त होना।
उसराना (क्रि.)  कार्य समाप्त करना, निबटाना।
उसलती (वि.)  उठता हुआ, बंद होता हुआ, उचटता हुआ।
उसलना (क्रि.)  1. उठ कर चला जाना 9. उखड़ना
उसालना (क्रि.)  जमी हुई वस्तु को धीरे-धीरे उठाना।
उसीसा (सं.)  1. सिरहाना 2. सिर को टिकाने का साधन, तकिया।
उसुआना (क्रि.)  सूजना।
उसुर-पुसुर (क्रि. वि.)  उकताकर, किसी परेशानी से बेचैनी की स्थिति।
उहॉं (क्रि. वि.)  वहाँ।
उही मन ला (सर्व.)  उन को।
उही (सर्व.)  1. वही 2. उसी।
ऊँच (वि.)  ऊँचा, ऊँची जाति का, बड़ा।
ऊँटी (सं.)  गाड़ी टिकाने के लिए प्रयुक्त होनेवाली विशेष तरह से तैयार की गई लकड़ी जिसके नीचे की ओर दो पाये हों, लाठी।
ऊँधस (सं.)  ऊधम।
ऊना (कि.)  उदित होना। – (वि.) खाली, कम, न्यून। दे. ‘उन्ना’।
ऊमस (स.)  उमस।
ऊल (सं.)  1. संतुलन 2. गिल्ली को ऊँचा उछालने का कार्य।

The post उ-ऊ छत्‍तीसगढ़ी हिन्‍दी शब्‍दकोश appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

ब्लाग लिखईया मनखे मन ला दे-बर परही GST

$
0
0

नवा जी.एस.टी. कानून ह लागू होए म 3 दिन बांचे हे, 1 जुलाइ ले जी.एस.टी. होवत हे लागू, जी.एस.टी. के बारे में विस्तार ले कतको गजट, समाचार, पतरिका म जानकारी मिल जाही। एखर अनुसार हमन ला बुनियादी पदारथ मा 0%, 5%, 12%, 18% and 28% (+अउ लक्जरी समान मा सेस अलग ले) लगही।
अईसे तो सियान मन विस्तार ले बताहीं के कामा कतका-कतका जी.एस.टी. लगही, कुछु ह मंहगा होही त कुछु ह सस्ता, मै हर तो अतके बताए बर लिखत हौं भई के अब हम ब्लागर मन के बिरादरी बर जी.एस.टी. हर भारी परईया हे।
वइसे तो ब्यापारी भाई मन ल 20 लाख तक के टर्न ओभर मा जी.एस.टी. के रजिस्ट्रेशन मा सरकार छूट देवत हे। फेर सेंटरल जी.एस.टी. एक्ट के धारा 24 कहिथे के जउन मनखे के आमदनी के स्रोत भारत देश के बाहिर के होही, तेन ला एको रुपिया के छूट नइ मिले, ब्लागर भाई मन ह इंटरनेट ले अपन ब्लाग म एडसेंस अउ आन विज्ञापन के जरिए एको रुपिया के कमाई होही त उनला, जी.एस.टी. बर रजिस्टर होए ल लागही अऊ जी.एस.टी. तक देहे ल लागही, येमा जी.एस.टी. के रेट हर होही 18% परसेंट। तो भाई मन तिहार मनावव अउ तियार हो जावव, जी.एस.टी. रजिस्टेशन बर।
gst.gov.in म जावव, इहां रजिस्ट्रेशन कइसे करना हे विस्तार जानकारी मिलही।

प्रमोद अचिन्त्य
नवसिखिया ब्लागर







The post ब्लाग लिखईया मनखे मन ला दे-बर परही GST appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

ओहर बेटा नोहे हे

$
0
0

ओहर बेटा नोहे हे! परसा के ढेंटा आय
लाठी ल टेक टेक के सडक म बाल्टी भर पानी लानत हे
देख तो डोकरी दाई ल कैसे जिनगी ल जीयत हे
कोनो नइये ओखर पुछैया अपन दुख ल लेके बडबडावत हे
कभू नाती ल, कभू बेटा ल, कभू बहू ल गोहरावत हे
पास पडोस के मन ल अपन पिरा ल सुनावत हे
1 रूपया के चउर अउ निराश्रीत पेंषन म जिनगी ल गुजारत हे
नती के हावय डोकरी दाई बर मया
चाय पानी रोज पियावत हे
पडोसी ह भुख के बेरा म डोकरी दाई ल नास्ता करावत हे
देख तो डोकरी दाई ल कैसे अपन लाठी ल टेक टेक के पानी ल लानत हे
डोकरी दाई मने मन गुनत हे
बेटा के मया म पेंषन ल घलो सकेलत हे
बेटा के ठाठ बाट, गांव म हावे चर्चा
डोकरी दाई कुलेकुप रोअथ हे रथिया
भुला के दाई चोहना ल बेटा
अब अपन म हावे मगन
तभो ले डोकरी दाई करथे सुरता
भले हे मने मन म कहिथे बेटा ल परबुधिया
काला मोर दुख ल बतांव ग ,साहिल, मने मन गुनत हंव
ओहर बेटा नोहे हे! परसा के ढेंटा आय

लक्ष्मी नारायण लहरे साहिल
युवा साहित्यकार पत्रकार
कोसीर, रायगढ, छत्तीसगढ

The post ओहर बेटा नोहे हे appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

हाय रे मोर गुरतुर बोली

$
0
0

मोर बोली अऊ भाखा के मय कतका करव बखान,
भाखा म मोर तीरथ बरथ हे जान ले ग अनजान।
हाय रे मोर गुरतुर बोली,
निक लागय न।
तोर हँसी अऊ ठिठोली
निक लागय न।

मोर बोली संग दया मया के,
सुग्हर हवय मिलाप रे।
मिसरी कस मिठास से येमे,
जईसे बरसे अमरीत मधुमास रे।

ईही भाखा ल गूढ़ के संगी,
होयेन सजोर,सगियान रे।
अपन भाखा अऊ चिन्हारी के,
झन लेवव तुमन परान रे।

मुड़ी चढईया भाखा ल आवव,
जुरमिर के फरियातेन।
सूत उठ के बोलतेन सबले पहिलिच
राम राम ग।
मन हरियाही,तन हरियाही,
हरियाही बोली बेवहार ग।

जय जोहर, जय छत्तीसगढ़ के,
अईसन करबो गोहार रे।
थके हारे मनखे मन के,
भगा जही पीरा संताप रे।

सिरतोन सिधवा उखरा मोर बोली,
दया मया के,
सुग्हर हयव मिलाप रे।
हाय रे मोर गुरतुर बोली,
निक लागय न।
तोर हँसी ठिठोली, निक लागय न।

विजेंद्र वर्मा अनजान
नगरगाँव (जिला-रायपुर)

The post हाय रे मोर गुरतुर बोली appeared first on गुरतुर गोठ : छत्तीसगढ़ी (Chhattisgarhi).

Viewing all 1686 articles
Browse latest View live


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>